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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रदीप को छिद्रयुक्त आवरण से आच्छादित कर देने पर वह अपना प्रकाश उन छिद्रों द्वारा थोड़ा-सा ही फैला सकता है उसी प्रकार ज्ञानप्रकाश स्वरूप आत्मा भी आवरणों का क्षयोपक्षम होने पर इन्द्रियरूप छिद्रों द्वारा अपना प्रकाश थोड़ासाही फैला सकती है । मुक्तात्मा में आवरणों का सर्वथा अभाव होता है अतः वह अपने पूर्ण रूप में प्रकाशित होती है । उसे संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान होता है । इससे यह सिद्ध है कि मुक्त आत्मा ज्ञानी है ।" १७० यह बात समझ में नहीं आती क्योंकि | मुक्तात्मा में उसमें सुख पुण्य-पापरूप किसी भी दुःख दोनों का अभाव मुक्तात्मा का सुख निराबाध होता है, पुण्य से सुख होता है और पाप से दुःख प्रकार के कर्म का सद्भाव नहीं होता अतः होना चाहिए, जैसे आकाश में सुख-दुःख कुछ भी नहीं होता । दूसरी बात यह है कि सुख-दुःख का आधार देह है। मुक्ति में देह का अभाव है अतः वहाँ आकाश के समान सुख और दुःख दोनों का अभाव होना चाहिए । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि वस्तुतः पुण्य का फल भी दुःख हो है क्योंकि वह कर्मजन्य है । जो कर्मजन्य होता है वह पापफल के समान दुःखरूप ही होता है । कोई इसका विरोधी अनुमान भी उपस्थित कर सकता है : पाप का फल भी वस्तुतः सुखरूप ही है क्योंकि वह कर्मजन्य है । जो कर्मजन्य होता है वह पुण्यफल के समान सुखरूप हो होता है पाप का फल भी कर्मजन्य है अतः वह सुखरूप होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि पुण्यफल का संवेदन अनुकूल प्रतीत होने के कारण सुखरूप है । ऐसी अवस्था में पुण्यफल को दुःखरूप कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है । इस शंका का समाधान करते हुए महावीर कहते हैं कि जिसे प्रत्यक्ष सुख कहा जाता है वह सुख नहीं किन्तु दुःख ही है । संसार जिसे सुख मानता है वह व्याधि ( दाद आदि ) के प्रतीकार के समान दुःखरूप ही है । अतः पुण्य के फल को भी तत्त्वतः दुःख ही मानना चाहिए । इसके लिए अनुमान भी दिया जा सकता है वह दुःख के प्रतीकार के रूप में हैं । जो दुःख के । : विषयजन्य सुख दुःख ही है क्योंकि प्रतीकार के रूप में होता है वह कुष्ठादि रोग के प्रतीकाररूप क्वाथपान आदि चिकित्सा के समान दुःखरूप ही होता है । ऐसा होते हुए भी लोग इसे उपचार से सुख कहते हैं । औपचारिक सुख पारमार्थिक सुख के बिना संभव नहीं अतः मुक्त जीव के सुख को पारमार्थिक सुख मानना चाहिए। इसकी उत्पत्ति सर्वदुःख के क्षय द्वारा होती है जो बाह्य वस्तु के संसर्ग से सर्वथा निरपेक्ष है । अतः मुक्तावस्था का सुख मुख्य एवं विशुद्ध सुख है तथा प्रतीकाररूप सांसारिक सुख औपचारिक एवं वस्तुतः दुःखरूप है । २ १. गा० १९९७-२००१. Jain Education International २. गा० २००२-९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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