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________________ विशेषावश्यकभाष्य १६३ जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि ऐसा मानने पर जीव की मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती । जो वस्तु अनादि होती वह अनन्त भी होती है जैसे जोव तथा आकाश का सम्बन्ध । जीव तथा कर्म के सम्बन्ध को अनादि मानने पर अनन्त भी मानना ही पड़ेगा । ऐसी स्थिति में जीव कभी भी मुक्त नहीं हो सकेगा । " इन युक्तियों का समाधान करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि शरीर तथा कर्म की संतति अनादि है क्योंकि इन दोनों में परस्पर कार्य-कारणभाव है, जैसे बीज और अंकुर । जिस प्रकार बीज से अंकुर तथा अंकुर से बीज उत्पन्न होता है और यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है अतः इन दोनों को सन्तान अनादि है उसी प्रकार देह से कर्म और कर्म से देह की उत्पत्ति का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है अतः इन दोनों की सन्तान अनादि है । अतः जीव और कर्मसम्बन्धी उपयुक्त त्रिकल्प व्यर्थ हैं । जीव और कर्म की संतति अनादि है । जोव कर्म द्वारा शरीर उत्पन्न करता है अतः वह शरीर का कर्ता है तथा शरीर द्वारा कर्म को उत्पन्न करता है अतः वह कर्म का भी कर्ता । शरीर व कर्म को संतति अनादि है अतः जीव और कर्म की संतति को भी अनादि मानना चाहिए। इस प्रकार जीव और कर्म का बंध भी अनादि सिद्ध होता है । २ यह कथन कि जो अनादि है वह अनन्त भी होता ही है, अयुक्त है । बीज और अंकुर की संतति अनादि होते हुए भी सशान्त हो सकती है । इसी प्रकार अनादि कर्म संतति का भी अन्त हो सकता है । बीज तथा अंकुर में से यदि किसी का भी अपना कार्य उत्पन्न करने से पूर्व ही नाश हो जाए तो उसकी सन्तान का भो अन्त हो जाता है । यही नियम मुर्गी और अण्डे के लिए भी है । दूसरा उदाहरण लोजिए । स्वर्ग तथा मिट्टी का संयोग अनादि संततिगत है फिर भी उपाय विशेष से उस संयोग का नाश हो जाता है । ठीक इसी प्रकार जीव तथा कर्म के अनादि संयोग का भी सम्यग्दर्शन आदि द्वारा नाश हो सकता है । इसके बाद आचार्य ने मोक्षविषयक विवेचन करते हुए भव्य और अभव्य के स्वरूप की चर्चा की है । ४ जीव तथा कर्म के संयोग का नाश उपायजन्य है अर्थात् मोक्ष की उत्पत्ति उपाय से होती है । जो उपायजन्य है वह कृतक है । जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, जैसे घट | अतः मोक्ष भी घटादि के समान कृतक होने के कारण अनित्य होना चाहिए । इस संशय का निवारण करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि १. गा० १८११. ३. गा० १८१७-९. Jain Education International २. गा० १८१३-५. ४. गा० १८२१-१८३६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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