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________________ १६२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास णता में भी अनेक दोषों की सम्भावना है। स्वभाव को वस्तुधर्म भी नहीं माना जा सकता क्योंकि उसमें भी वैसा दृश्य के लिए कोई स्थान नहीं रहता । स्वभाव को पुद्गलरूप मानकर वैसादृश्य की सिद्धि की जाये तो वह कर्मरूप ही सिद्ध होगा। इस प्रकार भगवान् महावीर ने सुधर्मा का संशय दूर किया और उन्होंने अपने ५०० शिष्यों सहित भगवती दीक्षा अंगीकार की। बंध और मोक्षः इसके बाद मंडिक भगवान् महावीर के पास पहुंचे। भगवान् ने उनके मन का संशय प्रकट करते हुए कहा-मंडिक ! तुम्हारे मन में सन्देह है कि बंध और मोक्ष हैं कि नहीं ? तुम वेदपदों का अर्थ ठीक तरह से नहीं समझते अतः तुम्हारे मन में इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न होता है। मैं तुम्हारा सन्देह दूर करूँमा । मंडिक! तुम यह सोचते हो कि यदि जीव का कर्म के साथ जो संयोग है वही बंध है तो वह बंध सादि है या अनादि ? यदि वह सादि है तो क्या (१) प्रथम जीव और तत्पश्चात् कर्म उत्पन्न होता है अथवा (२) प्रथम कर्म और तत्पश्चात् जीव उत्पन्न होता है अथवा ( ३) वे दोनों साथ ही उत्पन्न होते हैं ? इन तीनों विकल्पों में निम्न दोष आते हैं : १. कर्म से पूर्व जीव की उत्पत्ति सम्भव नहीं क्योंकि खरशृंग के समान उसका कोई हेतु दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि जीव की उत्पत्ति निर्हेतुक मानी जाये तो उसका विनाश भी निर्हेतुक मानना पड़ेगा। २. जीव से पहले कर्म की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं क्योंकि जीव कर्म का कर्ता माना जाता है । यदि कर्ता ही न हो तो कर्म कैसे उत्पन्न हो सकता है ? जीव के समान ही कर्म की निर्हेतुक उत्पत्ति भी सम्भव नहीं। यदि कर्म की उत्पत्ति बिना किसी कारण के मानी जाये तो उसका विनाश भी निर्हेतुक मानना पड़ेगा । अतः कर्म को जीव से पूर्व नहीं माना जा सकता। . ३. यदि जीव तथा कर्म दोनों की युगपत् उत्पत्ति मानी जाये तो जीव को कर्ता तथा कर्म को उसका कार्य नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार लोक में एक साथ उत्पन्न होने वाले गाय के सींगों में से एक को कर्ता तथा दूसरे को कार्य नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार एक साथ उत्पन्न होने वाले जीव और कर्म में का और कर्म का व्यवहार नहीं किया जा सकता। १. गा० १७८५-१७९३. २. गा० १८०१. ३. गा० १८०२-४. ४. गा० १८०५-१८१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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