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________________ १४८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जीव की अनेकता : जीव का लक्षण उपयोग है । जीव के मुख्य दो भेद हैं : संसारी और सिद्ध । संसारी जीव के पुनः दो भेद हैं : त्रस और स्थावर ।' ___ जो लोग आकाश के समान एक ही जीव की सत्ता में विश्वास करते हैं। वे यथार्थवादी नहीं हैं । नारक, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि पिंडों में आकाश के समान एक ही आत्मा मानने में क्या हानि है ? इसका उत्तर यह है कि आकाश के समान सब पिंडों में एक आत्मा संभव नहीं। आकाश का सर्वत्र एक ही लिंग अथवा लक्षण हमारे अनुभव में आता है अतः आकाश एक ही है। जीव के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता । जीव प्रत्येक पिण्ड में विलक्षण है अतः उसे सर्वत्र एक नहीं कहा जा सकता। जीव अनेक हैं क्योंकि उनमें लक्षणभेद है, जैसे विविध घट । जो वस्तु अनेक नहीं होती उसमें लक्षण भेद भी नहीं होता, जैसे आकाश । फिर, एक ही जीव मानने पर सुख, दुःख, बंध, मोक्ष आदि की व्यवस्था भी नहीं बन सकती । एक ही जीव का एक ही समय में सुखी-दुःखी होना संभव नहीं, बद्ध-मुक्त होना संभव नहीं। अतः अनेक जीवों की सत्ता मानना युक्तिसंगत है । इन्द्रभूति महावीर के उपयुक्त वक्तव्य से पूर्ण संतुष्ट नहीं होते । वे पुनः शंका करते हैं कि यदि जोव का लक्षण ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग है और वह सब जीवों में विद्यमान है तो फिर प्रत्येक पिंड में लक्षण भेद कैसे माना जा सकता है ? इसका समाधान करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि सभी जीवों में उपयोगरूप सामान्य लक्षण के विद्यमान होते हुए भी प्रत्येक शरीर में विशेष-विशेष उपयोग का अनुभव होता है । जीवों में उपयोग के अपकर्ष तथा उत्कर्ष के तारतम्य के अनन्त भेद है । यही कारण है कि जीवों की संख्या भी अनन्त है। जीव का स्वदेह-परिमाण : जीवों को अनेक मानते हुए भी सर्वव्यापक मानने में क्या आपत्ति है ?" जीव सर्वव्यापक नहीं अपितु शरीरव्यापी है क्योंकि उसके गुण शरीर में ही उपलब्ध होते हैं । जैसे घट के गुण घट से बाह्य देश में उपलब्ध नहीं होते अतः वह सर्वव्यावक नहीं माना जाता, उसी प्रकार आत्मा के गुण भी शरीर से बाहर उपलब्ध नहीं होते अतः वह स्वदेहपरिमाण ही है ।" अथवा जहाँ जिसकी उपलब्धि प्रमाणसिद्ध नहीं होती वहाँ उसका अभाव मानना चाहिए जैसे घट में १. गा० १५८०. २. ब्रह्मबिन्दु उपनिषद, ११ आदि. ३. गा० १५८१-३. ४. जैसा कि सांख्य, नैयायिक आदि मानते हैं। ५. तुलना : अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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