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विशेषावश्यकभाष्य
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करणों का अधिष्ठाता कुंभकार होता है। जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं होता वह आकाश के समान करण भी नहीं होता। इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता है वही आत्मा है। (२) देह का कोई कर्ता होना चाहिए क्योंकि उसका घट के समान एक सादि एवं नियत आकार है। जिसका कोई कर्ता नहीं होता उसका सादि 'एवं निश्चित आकार भी नहीं होता, जैसे बादल | इस देह का जो कर्ता है वही आत्मा है । (३) जब इन्द्रियों और विषयों में आदान-आदेयभाव है तब उनका कोई आदाता अवश्य होना चाहिए। जहाँ आदान-आदेयभाव होता है वहाँ कोई आदाता अवश्य होता है; जैसे संडासी (संदंशक ) और लोहे में आदान-आदेयभाव है तथा लुहार ( लोहकार ) आदाता है। इसी प्रकार इन्द्रिय और विषय में आदान-आदेयभाव है तथा आत्मा आदाता है । (४) देहादि का कोई भोक्ता अवश्य होना चाहिए क्योंकि वह भोग्य है; जैसे भोजन वस्त्रादि भोग्य पदार्थों का भोक्ता 'पुरुषविशेष है। देहादि का जो भोक्ता है वही आत्मा है। (५) देहादि का कोई स्वामी अवश्य होना चाहिए क्योंकि ये संघातरूप हैं । जो संधात रूप होता है उसका कोई स्वामी अवश्य होता है, जैसे गृह और उसका स्वामी गृहपति । देहादि संघातों का जो स्वामी है वही आत्मा है।' व्युत्पत्तिमूलक हेतु :
शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से जीव का अस्तित्व सिद्ध करते हुए भगवान् महावीर इन्द्रभूति को समझाते हैं कि 'जीव' पद 'घट' पद के समान व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद होने के कारण सार्थक होना चाहिए अर्थात् 'जीव' पद का कुछ अर्थ अवश्य होना चाहिए। जो पद सार्थक नहीं होता वह व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद भी नहीं होता, जैसे डित्थ, खरविषाण आदि । 'जीव' पद व्युत्पत्तियुक्त तथा शुद्ध है अतः उसका कोइ अर्थ अवश्य होना चाहिए। इस तर्क को सुनकर इन्द्रभूति फिर कहते हैं कि शरीर ही 'जीव' पद का अर्थ है, उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं। महावीर इस मत का खण्डन करते हुए पुनः कहते हैं-'जीव' पद का अर्थ शरीर नहीं हो सकता क्योंकि 'जीव' शब्द के पर्याय 'शरीर' शब्द के पर्यायों से भिन्न हैं जोव के पर्याय हैं : जन्तु, प्राणी, सत्त्व, आत्मा आदि । शरीर के पर्याय हैं : देह, वपु, काय, कलेवर आदि। और फिर देह और जीव के लक्षण भी भिन्न-भिन्न हैं। जीव ज्ञानादि गुणयुक्त है जबकि देह जड़ है। इसके बाद महावीर ने अपनी सर्वज्ञता के प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि सर्वज्ञ के वचनों में सन्देह नहीं होना चाहिए क्योकि वह राग, द्वेषादि दोषों से परे होता है जिनके कारण मनुष्य झूठ बोलता है। १. गा० १५६७-९. २. गा० १५७५-६. ३. गा० १५७७-९.
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