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________________ विशेषावश्यकभाष्य १३३ अंगप्रविष्ट आचारादि श्रुत तथा अनंगप्रविष्ट आवश्यकादि श्रुत सम्यक्श्रुत की कोटि में है। लौकिक महाभारतादि श्रुत मिथ्याश्रुत है। स्वामित्व की दृष्टि से विचार करने पर सम्यगदृष्टिपरिगृहीत लौकिक श्रुत भी सम्यकश्रुत की कोटि में आ जाता है जबकि मिथ्यादृष्टिपरिगृहीत आचारादि सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत की कोटि में चला जाता है । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वपरिगृहीत श्रुत सम्यक् होता है। सम्यक्त्व पांच प्रकार का है : औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक तथा क्षायिक । भाष्यकार ने इन प्रकारों का संक्षिप्त परिचय दिया है। द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा से श्रत पंचास्तिकाय की भांति अनादि तथा अपर्यवसित-अनन्त है और पर्यायास्तिक नय की दृष्टि से जीव के गतिपर्यायों की भांति सादि एवं सपर्यवसित-सान्त है । जो बात श्रुत के लिए कही गई है वही संसार के समस्त पदार्थों के लिए है । प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न होता है, नष्ट होता है तथा नित्यरूप से स्थित रहता है। इसी प्रकार सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष आदि का सद्भाव सिद्ध किया जाता है । गम का अर्थ होता है भंग अर्थात् गणितादि विशेष । वे जिसमें हों उसे गमिक कहते हैं। अथवा गम का अर्थ है सदृश पाठ । वे जिसमें बहुतायत से हों उसे गमिक कहते हैं । जिस श्रुत में इस प्रकार की सामग्री न हो वह अगमिक श्रुत है। द्वादशांगरूप गणघरकृत श्रुत को अंगप्रविष्ट कहते हैं तथा अनंगरूप स्थविरकृत श्रुत को अंगबाह्य कहते हैं । अथवा गणधरपृष्ट तीर्थंकरसंबन्धी जो आदेश है, उससे निष्पन्न होने वाला श्रुत अंगप्रविष्ट है तथा जो मुत्क अर्थात् अप्रश्नपूर्वक अर्थप्रतिपादन है वह अंगबाह्य है। अथवा जो श्रुत ध्रुव अर्थात् सभी तीर्थंकरों के तीर्थों में नियत है वह अंगप्रविष्ट है तथा जो चल अर्थात् अनियत है वह अंगबाह्य है । उपयोगयुक्त श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को जानता है किन्तु उनमें से अपने अचक्षुदर्शन से कुछ को ही देखता है। ऐसा क्यों ? इसका भी उत्तर भाष्यकार ने दिया है । जिन आठ गुणों से आगमशास्त्र का ग्रहण होता है वे इस प्रकार हैं : शुश्रूषा, प्रतिपृच्छा, श्रवण, ग्रहण, पर्यालोचन, अपोहन (निश्चय ), धारण और सम्यगनुष्ठान । भाष्यकार ने नियुक्तिसम्मत इन आठ प्रकार के गुणों का संक्षिप्त विवेचन किया है। १. गा० ५२७-५३६. ५. गा० ५५०. २. गा० ५३७. ३. गा० ५४४. ४. गा० ५४९. ६. गा० ५५३-५. ७. गा० ५६२-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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