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________________ १३२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रुतज्ञान: श्रुतज्ञान की चर्चा करते हुए कहा गया है कि लोक में जितने भी प्रत्येकाक्षर हैं और जितने भी उनके संयोग हैं उतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियाँ होती हैं। संयुक्त और असंयुक्त एकाक्षरों के अनन्त संयोग होते है और उनमें से भी प्रत्येक संयोग के अनन्त पर्याय होते हैं। श्रुतज्ञान का चौदह प्रकार के निक्षेपों से विचार किया जाता है । वे चौदह प्रकार ये हैं : अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट-ये सात और सात इनके प्रतिपक्षी। अक्षर तीन प्रकार का है : संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर । जितने भी लिपिभेद हैं वे सब संज्ञाक्षर के कारण हैं। जिससे अर्थ की अभिव्यक्ति होती है उसे व्यञ्जनाक्षर कहते हैं । अक्षर की उपलब्धि अर्थात् लाभ को लब्ध्यक्षर कहते हैं । यह विज्ञानरूप है, इन्द्रिय-मनोनिमित्तक है तथा आवरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। इनमें से संज्ञाक्षर और व्यञ्जनाक्षर द्रव्यश्रुतरूप हैं तथा लब्ध्य. क्षर भावश्रुतरूप है। श्रुतज्ञान के प्रसंग को दृष्टि में रखते हुए भाष्यकार ने यह भी सिद्ध किया है कि एकेन्द्रियादि असंज्ञी जीवों को अक्षर का लाभ (लब्ध्यक्षर) कैसे होता है। उच्छवसित, निःश्वसित, निष्ठयूत, कासित, क्षुत, निःसिंघित, अनुस्वार, सेण्टित आदि अनक्षर हैं।" जिसके संज्ञा होती है उसे संज्ञी कहते हैं। संज्ञा तीन प्रकार की है : कालिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी। कालिकी संज्ञा वाला अतीत और अनागत वस्तु का चिंतन करने में समर्थ होता है । हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाला जीव स्वदेहपरिपालन को दृष्टि से इष्ट और अनिष्ट वस्तु का विचार करता हुआ उसमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त होता है । यह संज्ञा प्रायः सांप्रतकालीन अर्थात् वर्तमान काल में ही होती है । अतीत और अनागत की चिन्ता इसका विषय नहीं होता । क्षायोपशमिक ज्ञान में वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा वाला है । इस दृष्टि से मिथ्यादृष्टि असंज्ञी है। पृथिवी, अप, तेजस्, वायु और वनस्पति में ओघसंज्ञा (वृत्त्यारोहणादि अभिप्रायरूप) होती है । द्वीन्द्रियादि में हेतुसंज्ञा रहती है । सुर, नारक और गर्भोद्भव प्राणियों में कालिकी संज्ञा होती है । छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि जीवों में दृष्टिवाद संज्ञा रहती है । केवलियों में किसी प्रकार की संज्ञा नहीं होती, क्योंकि स्मरण, चिन्ता आदि मति-व्यापारों से विमुक्त होते है, अतः वे संज्ञातीत हैं।" १. गा० ४४४-५. ४. गा० ४७४-६. ७. गा० ५१५-७. २. गा० ४५३-४. ३. गा० ४६४-७. ५. गा० ५०१ (नियुक्ति). ६. गा० ५०४-८. ८.गा० ५२३-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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