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________________ विशेषावश्यकभाष्य १२७ आदि का विचार करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि आवश्यकानुयोग का फल, योग मंगल, समुदायार्थ, द्वारोपन्यास, तद्भेद, निरुक्त, क्रमप्रयोजन आदि दृष्टियों से विचार करना चाहिए।' फलद्वार: आवश्यकानुयोग का फल यह है : ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है और आवश्यक ज्ञान-क्रियामय है, अतः उसके व्याख्यानरूप कारण से मोक्षलक्षणरूप कार्यसिद्धि होती है। योगद्वार: योगद्वार की व्याख्या इस प्रकार है : जिस प्रकार वैद्य बालक आदि के लिए यथोचित आहार की सम्मति देता है, उसी प्रकार मोक्षमार्गाभिलाषी भव्य के लिए प्रारम्भ में आवश्यक का आचरण योग्य है-उपयुक्त है । आचार्य शिष्य को पंचनमस्कार करने पर सर्वप्रथम विधिपूर्वक सामायिक आदि देता है। उसके बाद क्रमशः शेष श्रुति का भी बोध कराता है। क्योंकि स्थविरकल्प का क्रम उसी प्रकार है । वह क्रम यों है : प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति, विहार और सामाचारीस्थिति ।" यहाँ एक शंका होती है कि यदि पहले नमस्कार करना चाहिए और बाद में सामायिकादि आवश्यक का ग्रहण करना चाहिए, तो सर्वप्रथम नमस्कार का अनुयोग करना चाहिए और उसके बाद आवश्यक का अनुयोग करना उपयुक्त है । इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि नमस्कार सर्व श्रुतस्कन्ध का अभ्यन्तर है अतः आवश्यकानुयोग के ग्रहण के साथ उसका भी ग्रहण हो ही जाता है । नमस्कार सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तर है इसका क्या प्रमाण ? उसकी सर्वश्रुताभ्यन्तरता का यही प्रमाण है कि उसे प्रथम मंगल कहा गया है । दूसरी बात यह है कि इसका नंदी में पृथक् श्रुतस्कन्ध के रूप में ग्रहण नहीं किया गया है। मंगलद्वार : अब मंगलद्वार की चर्चा प्रारम्भ होती है। मंगल की क्या उपयोगिता है, यह बताते हुए कहा गया है कि श्रेष्ठ कार्य में अनेक विध्न उपस्थित हो जाया करते हैं । उन्हीं की शान्ति के लिए मंगल किया जाता है। शास्त्र में मंगल तीन स्थानों पर होता है : आदि, मध्य और अन्त । प्रथम मंगल का प्रयोजन शास्त्रार्थ की अविघ्नपूर्वक समाप्ति है, द्वितीय का प्रयोजन उसी की स्थिरता है और तृतीय का प्रयोजन उसी की शिष्य-प्रशिष्यादि वंशपर्यन्त अव्यवच्छित्ति है । भाष्यकार ने मंगल का शब्दार्थ इस प्रकार किया है : मंगय्तेऽधिगम्यते येन हितं तेन मंगलं १. गा० १-२. २. गा० ३. ३. गा० ४. ४. गा० ५. ५. गा० ७. ६. गा० ८-१० ७. गा० १२-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002096
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages520
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size19 MB
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