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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आकाश में गमन करने वाले भ्रमरों का है।'
हेतु और दृष्टान्त के प्रसंग पर जिन दस अवयवों का निर्देश ऊपर किया गया है उनके नाम ये हैं : १. प्रतिज्ञा, २. विभक्ति, ३. हेतु, ४. विभक्ति, ५. विपक्ष, ६. प्रतिबोध, ७. दृष्टान्त, ८. आशंका, ९. तत्प्रतिषेध, १०. निगमन । नियुक्तिकार ने इन दस प्रकार के अवयवों पर दशवकालिक के प्रथम अध्ययन को अच्छी तरह कसा है और यह सिद्ध किया है कि इस अध्ययन की रचना में इन अवयवों का सम्यक्रूपेण अनुसरण किया गया है ।
दूसरे अध्ययन के प्रारंभ में 'श्रामण्यपूर्वक' को निक्षेप-पद्धति से व्याख्या की गई है। 'श्रामण्य' का निक्षेप चार प्रकार का है तथा 'पूर्वक' का तेरह प्रकार का। जो संयत है वही भावश्रमण है। आगे की कुछ गाथाओं में भावभ्रमण का बहुत ही नपा-तुला और भावपूर्ण वर्णन किया गया है ।3 'श्रमण' शब्द के पर्याय ये हैं : प्रव्रजित, अनगार, पाखंडी, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निग्रंथ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्राता, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष, तीरार्थी ।' 'पूर्व' के निक्षेप के तेरह प्रकार ये हैं : १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. काल, ६. दिक्, ७. तापक्षेत्र, ८. प्रज्ञापक, ९. पूर्व, १०. वस्तु, ११. प्राभृत, १२. अतिप्राभूत और १३. भाव ।" इसके बाद 'काम' का नामादि चार प्रकार के निक्षेप से विचार किया गया है। भावकाम दो प्रकार का है : इच्छाकाम और मदनकाम । इच्छा प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार की होती है। मदन का अर्थ है वेदोपयोग अर्थात् स्त्रीवेदादि के विपाक का अनुभव । प्रस्तुत अधिकार मदनकाम का है । .. 'पद' की नियुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं कि पद चार प्रकार का होता है : नामपद, स्थापनापद, द्रव्यपद और भावपद । भावपद के दो भेद हैं : अपराधपद और नोअपराधपद । नोअपराधपद के पुनः दो भेद हैं मातृकापद और नोमातकापद । नोमातकापद के भी दो भेद हैं : ग्रथित और प्रकीर्णक । ग्रथित चार प्रकार का होता है : गद्य, पद्य, गेय और चौर्ण । प्रकीर्णक के अनेक भेद होते हैं। इंद्रिय, विषय, कषाय, परोषह, वेदना, उपसर्ग आदि अपराध पद हैं । श्रमणधर्म के पालन के लिए इनका परिवर्जन आवश्यक है ।
तीसरे अध्ययन का नाम क्षुल्लिकाचारकथा है । नियुक्तिकार क्षुल्लक, आचार और कथा-इन तीनों का निक्षेप करते हैं। क्षुल्लक महत् सापेक्ष है
१. गा. ११७-१२२ ३. गा. १५२-७. ५. गा. १६०. २. गा. १३७-१४८. ४. गा. १५८-
९ ६ . गा. १६१-३. ७. गा. १६६-१७७.
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