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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विजयद्वार – जम्बूद्वीप के विजय नामक द्वार का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इसके शिखर सोने के बने हुए हैं जो ईहामृग, वृषभ आदि के चित्रों से शोभायमान हैं। यह नेम, प्रतिष्ठान, खंभे, देहली, इन्द्रकील, द्वारशाखा, उत्तरंग, कपाट, संधि, सूची, समुद्रक, अर्गला, अर्गलापाशक, आवर्तनपीठिका और उत्तरपार्श्वक से युक्त है । द्वारों के बन्द हो जाने पर घर में हवा प्रवेश नहीं कर सकती, द्वार के दोनों ओर भित्तिगुलिका ( चौकी ) और गोमाणसिय ( बैठकें ) बने हुए हैं । यह द्वार विविध रत्नों से खचित शालभंजिकाओं से शोभित है। द्वार के ऊपर-नीचे कूट ( कमान ), उत्सेध ( शिखर ), उल्लोक ( छत ), भौम ( फर्श ), पक्ष ( पख ), पक्षचाह ( पखवाह ), वंश ( धरन ), वंशवेल्ल ( खपड़ा ), पट्टिया ( पटिया ), अवघाटिनी ( छाजन ) और उपरिपुंछनी ( टाट ) दिखाई दे रहे हैं । द्वार के ऊपर अनेक तिलक और अर्धचन्द्र बने हैं और मणियों की मालाएँ टँगी हैं। दोनों ओर चदन-कलश रखे हैं । इनमें सुगन्धित जल भरा है और लाल डोरा बँधा हुआ है । दोनों ओर दो-दो नागदन्त ( खूँटियाँ ) लगी हैं जिनमें छोटी छोटी घंटियाँ और मालाएँ लटकी हुई हैं। एक नागदन्त के ऊपर अनेक नागदन्त हैं । इन पर सिक्कक ( छींके ) लटके हैं और इन सिक्कों में धूपघटिकाएँ रखी हैं जिनमें अगर आदि पदार्थ महक रहे हैं । द्वार के दोनों ओर दो-दो शालभंजिकाएँ हैं । ये रंग-बिरंगे वस्त्र और मालाएँ पहने हैं; इनका मध्य भाग मुष्टिप्राय है । इनके पीन पयोधर हैं और कृष्ण केश हैं। ये अपने बायें हाथों से अशोक वृक्ष की शाखा पकड़े हैं, कटाक्षपात कर रही हैं, एक दूसरे को इस तरह देख रही हैं मानों खिजा रही हों । द्वार के दोनों ओर जालकटक हैं और घंटे लटक रहे हैं। दोनों ओर की बैठकों में वनपंक्तियाँ हैं जिनमें नाना वृक्ष लगे हैं ( १२९ ) ।' ७६ विजयद्वार के दोनों ओर दो प्रकंठक ( आसन ) हैं और ऊपर प्रासादावतंसक नामक प्रासाद बने हुए हैं । इन प्रासादों में मणिपीठिकाएँ बिछी हुई हैं जो सिंहासनों से शोभित हैं । ये सिंहासन चक्कल, सिंह, पाद, पादपीठ, गात्र और संधियों से युक्त तथा ईहामृग, वृषभ आदि के चित्रों से शोभित हैं । सिंहासनों के आगे पाँव रखने के लिये पादपीठ हैं जो मसूरग ( मुलायम गद्दी ) और अत्यन्त कोमल सिंहकेसर ( एक प्रकार का वस्त्र ) से १. यही वर्णन रायपसेणइय सूत्र ( ९८ १०४ ) में है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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