SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्राम आदि के नाम - ग्राम', नगर निगम, (जहाँ बहुत से वणिक् रहते हों ), खेट ( जिसके चारों ओर मिट्टी का परकोटा बना हो ), कर्बट ( जो चारों ओर से पर्वत से घिरा हो ), मडंब ( जिसके चारों ओर पाँच कोस तक कोई ग्राम न हो ), पट्टण ( जहाँ विविध देशों से माल आता हो ), द्रोणमुख ( जहाँ अधिकतर जलमार्ग से आते-जाते हों ), आकर ( जहाँ लोहे आदि की खानें हो ), आश्रम, संबाध ( जहाँ यात्रा के लिये बहुत से लोग आते हों ), राजधानी, सन्निवेश ( जहाँ सार्थ आकर उतरते हों ) । ७२ 3 राजा आदि के नाम - राजा, युवराज, ईश्वर ( अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों से सम्पन्न ), तलबर ( नगररक्षक, कोतवाल ), माडम्बिय ( मडम्ब के नायक ), कौटुम्बिक ( अनेक कुटुम्बों के आश्रयदाता राजसेवक ), इभ्य ( प्रचुर धन के स्वामी ), श्रेष्ठी ( जिनके मस्तक पर देवता की मूर्ति सहित सुवर्णपट्ट बँधा हो ), सेनापति, सार्थवाह ( सार्थ का नेता ) । ७ - गोरस, ८ - जूस, ह - भक्ष्य ( खंडखाद्य ), १० - गुडपपंटिका, ११मूलफल, १२ - हरीतक, १३-शाक, १४ - रसालू, १५ - सुरापान, १६पानीय, १७ - पानक, १८- छाछ से छौंका हुआ शाक । १. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति ( १ - १०९४ ) में उत्तानमल्लका कार, अवाङ्मुखमलकाकार, सम्पुटमल काकार, खंडमल्लकाकार आदि अनेक प्रकार के ग्राम बताये हैं । २. देखिये – जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम ग्रन्थों की महत्त्वपूर्ण शब्द सूचियों, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५९, ३- ४, संवत् २०११, पृ० २९५ श्रदि । ३. सन्तुष्टनर पतिप्रदत्तसौवर्णपट्टालंकृतशिरस्कचौरादिशुद्धयधिकारी, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका, पृ० १२२. ४. सार्थवाह का लक्षणः- गणिमं धरिमं भेज्जं पारिच्छं चैव दम्वजायं तु । घेत्त लाभत्थं वचई जो अनदेसं तु । निवबहुमो पसिद्धो दीणाणाहाणवच्छलो पंथे । सो सत्थवाहनामं धणो व लोए समुग्वद्दद्द || Jain Education International - टीका, पृ० २७३ म । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy