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राजप्रश्नीय
बैठाने का उपाय सोचने लगी। एक दिन उसने राजा के भोजन-पान और वस्त्राभूषणों में विष मिला दिया। इससे भोजन करते ही और वस्त्राभूषण धारण करते ही राजा के शरीर में तीव्र वेदना होने लगी ।।
राजा समझ गया, लेकिन रानी के प्रति अपने मन में तनिक भी रोष न करते हुए प्रोषधशाला को झाड़-पोंछ कर दर्भ का संथारा ले पर्यङ्कासन से पूर्वाभिमुख बैठ अहेत-भगवंतों को नमस्कार कर केशीकुमार की स्तुति करने लगा। तत्पश्चात् उसने सर्वप्राणातिपात आदि पापों का त्याग कर अपने समस्त कर्मों की आलोचना की एवं प्रतिक्रमण द्वारा शरीर का त्याग किया और मर कर सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक देव हुआ। सूर्याभदेव के अतुल समृद्धि प्राप्त करने की यही कहानी है ( २०१-२०४ )।
देवलोक सें च्युत होकर सूर्याभदेव महाविदेह में उत्पन्न हुआ। उसके जन्मदिन की खुशी में पहले दिन स्थितिपतिता, तीसरे दिन चन्द्रसूर्यदर्शन और छठे दिन जागरिका उत्सव मनाया गया। उसके बाद ग्यारहवें दिन सूतक बीत जाने पर बारहवें दिन उसका नाम संस्कार किया गया और वह दृढ़प्रतिज्ञ नाम से कहा जाने लगा। तत्पश्चात् उसके प्रजेमनक ( भोजन ग्रहण करना), प्रतिवर्धापनक, प्रचंक्रमण (पैरों से चलना), कर्णवेध, संवत्सर-प्रतिलेख ( वर्षगांठ) और । चूड़ोपनयन आदि संस्कार किये गये।। ___ उसके बाद क्षीर, मंडन, मजन, अंक और क्रीडा करानेवाली पाँच धात्रियाँ, नाना देश-विदेश से लाई हुइ अनेक कुशल दासियाँ तथा अन्तःपुर के रक्षण के लिए नियुक्त किये हुए वर्षधर, कंचुकी और महत्तर आदि कर्मचारी बालक का लालन-पालन करने लगे । तत्पश्चात् उसे कलाचार्य के पास भेजा गया जहाँ उसने ७४ कलाओं की शिक्षा ग्रहण की और वह अठारह देशी भाषाओं में विशारद, गीत-नृत्य रसिक और नाट्य कला में कोविद हो गया। दृढ़प्रतिज्ञ के माता-पिता ने चाहा कि वह सांसारिक विषय-भोगों की ओर अभिमुख हो, लेकिन जल-कमल की भाँति वह निर्लेप भाव से सांसारिक जीवन यापन करने लगा। कालान्तर में दृढ़प्रतिज्ञ ने मोक्ष प्राप्त किया ( २०७-२१५)।
१-उबवाइय सूत्र में भी दृढ़प्रतिज्ञ का लगभग यही वर्णन मिलता है।
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