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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास छिद्र आदि नहीं था जिससे कि जीव बाहर निकल कर जा सके, लेकिन फिर भी "पुरुष मरा हुआ था। इससे सिद्ध होता है कि जीव और शरीर दोनों एक हैं। केशी-कल्पना करो कि किसी निश्च्छिद्र कूटागारशाला में प्रवेश कर कोई पुरुष किंवाड़ों को खूब अच्छी तरह बन्द कर, अन्दर बैठ कर जोर-जोर से भेरी चजाए तो क्या तुम बाहर से भेरी की आवाज सुन सकोगे ? पएसी- हाँ, सुन सकूँगा। केशी-तो देखो, जैसे निश्च्छिद्र मकान में से आवाज बाहर जा सकती है, . वैसे ही जीव पृथ्वी, शिला और पर्वत को भेद कर बाहर जा सकता है । इससे "सिद्ध है कि जीव और शरीर भिन्न हैं। (ख ) पएसी-भंते ! मैं एक और उदाहरण दूँ। मान लीजिये, किसी चोर को मार कर मैंने लोहे की कुम्भी में डलवा दिया और उसे ऊपर से अच्छी तरह ढककर वहाँ विश्वासपात्र सैनिकों को नियुक्त कर दिया । कुछ दिन बीत जाने पर मैंने देखा कि मृतक के शरीर में कृमि-कीड़े पड़ गये हैं । लोहे की कुम्भी में कोई छिद्र न होने पर भी ये कृमि-कीड़े कहाँ से प्रवेश कर गये? इससे मालूम होता है कि जीव और शरीर भिन्न नहीं हैं । केशी-पएसी ! तुमने कभी लोहे को फूंका है या उसे फूंके जाते हुए देखा है ? पएसी-हाँ, मंते ! मैंने देखा है । केशी-तुम्हें मालूम है कि उस समय लोहा अग्निमय हो जाता है। प्रश्न होता है, लोहे में यह अग्नि कैसे प्रविष्ट हुई जबकि लोहे में कहीं भी कोई छिद्र नहीं है। इसी तरह जीव अनिरुद्ध गतिवाला होने के कारण पृथ्वी, शिला आदि को भेदकर बाहर जा सकता है । इसलिए जीव और शरीर भिन्न हैं (१७१-१७४) । तीसरी युक्ति : (क ) पएसी-मैं एक और उदाहरण देता हूँ। कोई तरुण पुरुष धनुर्विद्या में कुशल होता है, लेकिन वही पुरुष बाल्यावस्था में शायद एक भी बाण धनुष 'पर रखकर नहीं छोड़ सकता । यदि बालक और युवा दोनों अवस्थाओं में पुरुष एक जैसा शक्तिशाली होता तो मैं समझता कि जीव और शरीर भिन्न हैं। ___ केशी-देखो, धनुर्विद्या में कुशल कोई पुरुष नये धनुष बाण द्वारा जितनी कुशलता दिखा सकता है उतनी कुशलता पुराने धनुष-बाण द्वारा नहीं दिखा सकता | इसका मतलब यह हुआ कि तरुण पुरुष शक्तिशाली तो है पर उपकरणों की कमी के कारण वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं कर सकता। इसी प्रकार मन्द ज्ञानवाला व्यक्ति उपकरणों की कमी के कारण अपनी शक्ति नहीं दिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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