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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहासक सामानिक देवों ने सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित होकर निवेदन किया"हे देवानुप्रिय ! आपके विमानस्थित सिद्धायतन में जिनप्रतिमा विराजमान है । आपकी सुधर्मा सभा के चैत्यस्तंभ में एक गोलाकार पिटारी में जिन भगवान् की अस्थियाँ रखी हुई हैं, आप उनकी वंदना पूजा कर पुण्य प्राप्त करें ।" यह सुनकर सूर्याभदेव अपनी देवशय्या पर से उठा और जलाशय में स्नान कर अभिषेकसभा में पहुँचा। वहाँ उसने सामानिक देवों को इन्द्राभिषेक रचाने का आदेश दिया ( १३३-१३५)। बड़े ठाठ से इन्द्राभिषेक समाप्त होने के बाद वस्त्रालंकार से विभूषित हो सूर्याभदेव व्यवसायसभा में आया और अपनी पुस्तक का स्वाध्याय करने लगा। फिर सिद्धायतन में पहुँच उसने जिनप्रतिमा का प्रक्षालन कर उस पर चन्दन का लेप किया और उसे अंगोछे से पोंछ देवदूष्य से विभूषित कर अलंकार पहनाये। उसके बाद प्रतिमा पर पुष्प, माला, गंध, चूर्ण, वर्ण, वस्त्र, आभरण आदि चढ़ाये, उसके सामने तंदुल से आठ मंगल बनाये, धूप, दीप जलाये और फिर वह १०८ छंदों द्वारा स्तुति करने लगा (१३५-१३९)। सूर्याभदेव को यह अतुल ऋद्धि किन शुभ कर्मों से प्राप्त हुई, इसका उत्तर दूसरे भाग में दिया गया है (१४१)। १. जिनप्रतिमा के आगे नागप्रतिमा, यक्षप्रतिमा, भूतप्रतिमा और कुंडधार आज्ञाधार (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका, पृ० ८१ अ) प्रतिमाओं के होने का उल्लेख है (सूत्र १३०)। इससे यक्ष-पूजा के महत्त्व का पता लगता है। यह शय्या प्रतिपाद, पाद, पादशीर्षक, गात्र और संधियों से युक्त तथा तूली ( रजाई ) बिब्बोयणा (उपधानक-तकिया), गंडोपधानक ( गालों का तकिया) और सालिंगनवर्तिक (शरीरप्रमाण तकिया) से संपन्न थी। इसके दोनों ओर तकिये लगे हुए थे। यह शय्या दोनों ओर से उठी हुई और बीच में नीची होने के कारण गंभीर तथा क्षौम और दुकूल वस्त्रों से आच्छादित थी (सूत्र १२७)। ३. इस प्रसंग पर पुस्तक का डोरा, गाँठ, लिप्यासन (दावात), ढक्कन, श्याही, लेखनी और कम्बिया (पट्टिका--पुट्ठा) का भी उल्लेख किया गया है (सूत्र १३१)। सूर्याभदेव की चैत्यवंदन-विधि के संबंध में मतभेद प्रतिपादन करते हुए टीकाकार मलयगिरि ने यही कहकर संतोष कर लिया है कि तत्त्व तो केवली जानते हैं ( सूत्र १३९ टीका, पृ० २५९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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