SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रिभित, आरभट और भसोल नामक नाट्यविधि प्रदर्शित करने लगे तथा दागन्तिक, प्रात्यान्तिक, सामान्यतो विनिपात और लोकमध्यावसानिक' नामक अभिनय दिखाने लगे। अभिनय समाप्त होने के पश्चात् सूर्याभदेव महावीर की तीन प्रदक्षिणाएँ कर, उन्हें नमस्कार कर अपने परिवार सहित विमान में बैठ जहाँ से आया था वहीं चला गया (८५-९९)। सूर्याभदेव का विमान : इसके बाद गौतम गणघर ने सूर्याभदेव और उसके विमान के संबन्ध में महावीर से कतिपय प्रश्न किये जिनका उत्तर महावीर ने दिया-सूर्याभदेव का विमान चारों ओर प्राकार (किला ) से वेष्टित है जो रंग-बिरंगे कंगूरों से शोभित है । इस विमान में अनेक बड़े-बड़े द्वार हैं जिनके शिखर (धूमिया) सोने के बने हैं और जो ईहामृग, वृषभ, घोड़े आदि के चित्रों से शोभायमान हैं। इसके खंभों के ऊपर वेदिकाएँ हैं जो विद्याधरों के युगल से विभूषित हैं। ये द्वार नेम ( दहलीज ), प्रतिष्ठान (नीव), खंभे, देहली ( एलुआ), इन्द्रकील (ओट), द्वारशाखाएँ ( साह; चेडा-द्वारशाखाः), उत्तरंग ( उतरंग; द्वारस्योपरितिर्यग्व्यवस्थितमंगम् ), सूची ( सली), संधि ( सांधे), समुद्गक ( सल्ला; सूचिकागृहाणि), अर्गला (मूसल), अर्गलपाशक ( जहाँ मूसल अटकाया जाता है), आवर्तनपीठ (घूमपाट; यत्र इन्द्रकीलको भवति) और उत्तरपार्श्वक ( उत्तर पख ) से युक्त हैं। इनके बन्द हो जाने पर उनमें से हवा अन्दर नहीं जा सकती। दरवाजों के दोनों ओर अनेक भित्तिगुलिका (चौकी) और गोमाणसिया (बैठक ) बने हैं और ये विविध रत्नों से खचित और शालभंजिकाओं से सुशोभित हैं। द्वारों के ऊपर-नीचे कूट ( कमान; माढभागः ), उत्सेध (शिखर ), उल्लोक (छत), भौम (फर्श), पक्ष (पख), पक्षाबाह (पखबाह ), वंश (धरन; पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक स्थाप्यमाना वंशाः), वंशकवेल्लुय (खपड़ा), पट्टिका (पटिया; वंशानामुपरि कंबास्थानीयाः), अवघाटिनी (छाजन; आच्छा १. टीकाकार ने नाट्य और अभिनयविधि की व्याख्या न करके इन विधियों ___ को नाट्य के विशारदों से समझने के लिए कहा है। २. गोपुरकपाटयुगसंधिनिवेशस्थानं, वही पृ० ४८. ३. चूलिकागृहाणि, यत्र न्यस्तो कपाटौ निश्चलतया तिष्ठतः, वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy