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________________ राजप्रश्नीय हाथी, वनलता और पद्मलता' से इसे चित्रित करो, खम्भों के ऊपर वज्र की वेदिका बनाओ, विद्याधर-युगल को प्रदर्शित करनेवाले यंत्र बनाओ, हजारों रूपकों से सुशोभित करो और इसमें अनेक घंटियाँ लगाओ ( २८)।" विमानरचना: सूर्याभदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर आभियोगिक देवों ने विमान की रचना आरम्भ कर दी। उन्होंने विमान के तीनों तरफ तीन सोपान बनाये। इनमें नेम ( दहलीज; णिम्मद्वाराणां भूमिभागात् ऊर्ध्व निर्गच्छन्तः प्रदेशाः), प्रतिष्ठान (नींव; मूलपादाः ), स्तंभ, फलक (पटिये; त्रिसोपानांगभूतानि), सूचिक ( सली), संधि ( सांधे ), अवलंबन ( सहारे; अवतरतामुत्तरतां चालंबनहेतुभूताः) और अवलंबनबाहु ( बांह ) बनाये। तीनों सोपानों के सामने मणि, मुक्ता और तारिकाओं से रचित तोरण लगाए। तोरणों के ऊपर आठ मंगल स्थापित किये, फिर रंग-बिरंगी चामरों की ध्वजाएँ तथा छत्र-पताका, घंटे और सुन्दर कमलों के गुच्छे लटकाये ( २९-३२ )। उसके बाद वे देव विमान के अन्दर के भाग को सजाने में लग गये। उन्होंने इसे चारों तरफ से सम बनाया, उसमें अनेक मणियाँ जड़ी जो स्वस्तिक, पुष्यमाणव, शरावसम्पुट, मछली के अंडों व मगर के अंडों की भाँति प्रतीत होती थी तथा पुष्पावलि, कमलपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता और पद्मलता के सुन्दर चित्रों से शोभित थी (२९-३३)। ___ इस विमान के बीचों-बीच एक प्रेक्षागृह बनाया गया। इसमें अनेक खम्भे लगाये गये तथा ऊँची वेदिकाएँ, तोरण और शालभंजिकाएँ स्थापित की गई। इसमें अनेक वैडूर्य रत्न जड़े और ईहामृग, वृषभ, घोड़े, हाथी, वनलता आदि के चित्र बनाये गये। सुवर्णमय और रत्नमय स्तूप स्थापित किये और विविध प्रकार की घंटियों और पताकाओं द्वारा उसके शिखर को सजाया। प्रेक्षामण्डप को लीप-पोत कर साफ किया, गोशीर्ष और रक्त चन्दन के थापे लगाये, चन्दन-कलशों को प्रतिष्ठित किया, तोरण लगाये, सुगन्धित पुष्पमालाएँ लटकाई, रंग-बिरंगे पुष्पों की वर्षा की तथा अगर आदि सुगन्धित द्रव्यों से उसे महका १. ये सब 'मोटिफ' मथुरा की स्थापत्यकला में चित्रित हैं, जिसका समय ईस्वी सन् की पहली-दूसरी शताब्दि माना जाता है। २. इसी प्रकार के राजभवन और शिविका के वर्गन के लिए देखिये-णायाधम्म कहाओ १, पृ० २२, ३४ (वैद्य संस्करण), तथा मानसार (अध्याय ४७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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