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३.२
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सात निह्नव:
बहुरय-इस मत के अनुसार कार्य क्रिया के अन्तिम समय में पूर्ण होता है, क्रियमाण अवस्था में नहीं । इस मत का प्रवर्तक जमालि' था।
जीवपएसिय-जीव में एक भी प्रदेश कम होने पर वह जीव नहीं कहा जा सकता, अतएव जिस एक प्रदेश के पूर्ण होने पर वह जीव कहा जाता है वह एक प्रदेश ही जीव है । तिष्यगुप्त इस मत के प्रवर्तक माने जाते हैं।'
अव्वत्तिय-इस मत के अनुसार समस्त जगत् अव्यक्त है और श्रमण, देव, राजा आदि में कोई भेद नहीं है। आषाढाचार्य इस मत के प्रवर्तक कहे जाते हैं।
सामुच्छेइय-ये लोग नरकादि भावों को क्षणस्थायी स्वीकार करते हैं। अश्वमित्र इस मत के संस्थापक माने जाते हैं।
दोकिरिया-इस मत के अनुसार जीव एक ही समय में शीत और उष्ण, वेदना का अनुभव करता है। गंगाचार्य इस मत के प्रवर्तक हैं।"
१. जमालि महावीर की ज्येष्ठ भगिनी सुदर्शना का पुत्र तथा उनकी पुत्री प्रियदर्शना का पति था। जमालि खत्तियकुण्डग्गाम का राजकुमार था
और गृहिधर्म को त्याग कर महावीर के समीप उसने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की थी। लेकिन आगे चलकर गुरु-शिष्य में मतभेद हो गया और जमालि ने अपना स्वतन्त्र मत स्थापित किया। प्रियदर्शना ने पहले जमालि का धर्म स्वीकार किया लेकिन बाद में वह महावीर की अनुयायिनी बन गई । इस मत का प्रवर्तन महावीर की ज्ञानोत्पत्ति के १४ वर्ष बाद उनके जीवनकाल में ही हुआ था। तिष्यगुप्त १४ पूर्वी के वेत्ता आचार्य वसु के शिष्य थे। इस मत की उत्पत्ति महावीर के केवलज्ञान उत्पन्न होने के १६ वर्ष बाद उनके जीवन
काल में ही हुई थी। ३. महावीर के मोक्षगमन के २१४ वर्ष बाद इस मत की उत्पत्ति हुई थी। ४. महावीर के मोक्षगमन के २२० वर्ष बाद इस मत की उत्पत्ति हुई थी। ५. महावीर के मोक्षगमन के २२८ वर्ष बाद इस मत की उत्पत्ति हुई थी।
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