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चतुर्थ प्रकरण
भक्तपरिज्ञा भत्तपरिणा-भक्तपरिज्ञा' में १७२ गाथाएँ हैं । इस प्रकीर्णक में भक्तपरिज्ञा नामक मरण का विवेचन है। प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने महावीर को नमस्कार कर भक्तपरिज्ञा की रचना का संकल्प किया है:
नमिऊण महाइसयं महाणुभावं मुणिं महावीरं ।
भणिमो भत्तपरिणं निअसरणहा परहा य ॥१॥ अभ्युद्यत मरण से आराधना पूर्णतया सफल होती है, यह बताते हुए ग्रन्थकार ने अभ्युद्यत मरण के तीन भेद किये हैं : भक्तपरिज्ञा, इंगिनी और पादोपगमन । एतद्विषयक गाथा यों है :
तं अब्भुज्जअमरणं अमरणधम्मेहिं वन्निअंतिविहं ।
भत्तपरिन्ना इंगिणि पाओवगमं च धीरेहिं ।। ९॥ भक्तपरिज्ञा मरण दो प्रकार का है : सविचार और अविचार । आचार्य ने भक्तपरिज्ञा मरण के अपने विवेचन में दर्शनभ्रष्ट अर्थात् श्रद्धाभ्रष्ट को मुक्ति का अनधिकारी बतलाया है:
दसणभट्ठो भट्ठो दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं ।
सिशंति चरणरहिआ दंसणरहिआ न सिझंति ।। ६६ ॥ अन्त की एक गाथा में वीरभद्र का उल्लेख होने के कारण इस प्रकीर्णक के कर्ता वीरभद्र माने जाते हैं :
इअ जोइसरजिणवीरभदभणिआणुसारिणीमिणमो। भत्तपरिन्नं धन्ना पढंति णिसुणंति भाति ।। १७१ ॥
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1. (भ) बालाभाई ककलभाई, अहमदाबाद, वि० सं० १९६२.
(भा) जैनधर्भ प्रसारक सभा, भावनगर, वि० सं० १९६६.
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