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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रुतज्ञान का व उसके साथ ही प्रस्तुत सूत्र का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निम्नोक्त आठ गुणों से युक्त मुनि को ही श्रुतज्ञान का लाभ होता है : १. शुश्रूषा (श्रवणेच्छा ), २. प्रतिपृच्छा, ३. श्रवण, ४. ग्रहण, ५. ईहा, ६. अपोह, ७. धारणा, ८. आचरण :
सुस्सूसइ पडिपुच्छइ, सुणेइ गिण्हइ य ईहए यावि । तत्तो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्म ।
-गा. ९५. अनुयोग अर्थात् व्याख्यान की विधि बताते हुए आचार्य कहते हैं कि सर्वप्रथम सूत्र का अर्थ बताना चाहिए, तदनन्तर उसकी नियुक्ति करनी चाहिए और अन्त में निरवशेष-सम्पूर्ण बातें स्पष्ट कर देनी चाहिए :
सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥
-गा. ९७.
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