SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास निष्क्रीडित, भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा, आयंबिलवर्धमान, मासिकभिक्षुप्रतिमा, क्षुद्रमोकप्रतिमा, महामोकप्रतिमा, यवमध्य चन्द्रप्रतिमा और वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा नामक तपों का आचरण करते थे । विद्या और मन्त्र में वे कुशल थे, पर-वादियों का मान मर्दन करने में पटु थे तथा निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुसार वे विहार करते थे । वे द्वादशांग - वेत्ता, गणिपिटक ( जिनप्रवचन ) के धारक और विविध भाषाओं के पण्डित थे । वे पांच समिति और तीन गुप्तियों को पालते, वर्षाकाल को छोड़कर बाकी के आठ महीनों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते और ग्राम में एक रात से अधिक तथा नगर में पाँच भिक्षाचर्या रात से अधिक निवास नहीं करते थे । ये तपस्वी अनशन, अत्रमौदर्य, ( वृत्तिसंक्षेप), रसपरित्याग, कायक्लेश' और प्रतिसंलीनता नामक बाह्य तप, तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग नामक आभ्यंतर तप का पालन करते थे। सूत्रों का वाचन, मनन और चिन्तन करते हुए तथा तप और ध्यान द्वारा आत्मचिन्तन करते हुए वे विहार करते थे (१३-१४) । १४ चम्पा नगरी में श्रमण भगवान् महावीर के आगमन का समाचार सुनते ही नगरवासियों में हलचल मच गई। एक दूसरे से वे कहने लगे : "भगवान् ग्रामानुग्राम से विहार करते हुए पूर्णभद्र चैत्य में पधारे हैं । जब उनके नाम - गोत्र का श्रवण करना भी महाफलदायक है, तो फिर उनके पास पहुँच कर उनकी वन्दना करना, कुशल- वार्ता पूछना और उनकी पर्युपासना करना क्या फलदायक न होगा ? चलो, हे देवानुप्रियो ! हम महावीर की वन्दना करें, उनका सत्कार करें और विनयपूर्वक उनकी उपासना करें। इससे हमें इस लोक और पर लोक में सुख की प्राप्ति होगी ।" यह सोचकर अनेक उग्र, उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र, राजन्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण, भट, योद्धा, प्रशास्ता, मलकी, लिच्छवी, १. कायक्लेश के निम्नलिखित भेद बताये गये हैं : स्थानस्थितिक, स्थानातिग, उत्कुटुक आसनिक, प्रतिमास्थायी, वीरा सनिक, नैषधिक, दंडायतिक, लकुटशायी, आतापक, रहित होकर तप करना ), अकण्डूयक ( तप करते हुए अनिष्ठीवक ( तप करते हुए थूकना नहीं ) – उववाइय (१९, पृ० ७५) । २. नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी काशी - कोसल के अठारह गणराजा थे जिन्होंने वैशाली के राजा चेटक के साथ मिलकर राजा कूणिक के विरुद्ध युद्ध किया था ( निरयावलिया १ ) । पावा नगरी में महावीर के निर्वाण के समय Jain Education International अपावृतक (वस्त्र खुजलाना नहीं ), For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy