________________
३०८
जैन साहित्य का वृहद् इतिहास प्रतिपातिक, ६. अप्रतिपातिक ।' आनुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का है : अन्तगत और मध्यगत । अन्तगत आनुगामिक अवधिशान तीन प्रकार का है: पुरतः अन्तगत, मार्गतः अन्तगत और पार्वतः अन्तगत । जैसे कोई पुरुष उल्कादीपिका, चटुली--पर्यन्तज्वलित तृणपूलिका, अलात-तृणाप्रवर्ती अग्नि, मणि, प्रदीप अथवा अन्य किसी.प्रकार की ज्योति को आगे रख कर बढ़ता हुआ चला जाता है उसी तरह जो ज्ञान आगे के प्रदेश को प्रकाशित करता हुआ साथ-साथ चलता है वह पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान है। जैसे कोई पुरुष उल्का आदि को पीछे. रखकर साथ में लिये हुए चलता जाता है वैसे ही जो ज्ञान पीछे के क्षेत्र को प्रकाशित करता हुआ जाता है वह मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। जैसे कोई पुरुष दीपिका आदि को अपनी बगल में रखकर आगे बढ़ता जाता है वैसे ही जो ज्ञान पाव के पदार्थों को प्रकाशित करता हुआ साथ-साथ चलता है वह पावतः अन्तगत अवधिज्ञान है। मध्यगत अवधिज्ञान किसे कहते हैं ? जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का आदि प्रकाशकारी पदार्थों को मस्तक पर रख कर चलता जाता है उसी प्रकार जो अवधिज्ञान चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए ज्ञाता के साथ-साथ चलता है वह मध्यगत आनुगामिक अवधिज्ञान है। अन्तगत
और मध्यगत अवधि में क्या विशेषता है ? पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान से संख्येय तथा असंख्येय योजन आगे के पदार्थ ही जाने व देखे जाते हैं ( जाणइ पासह), मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान से संख्येय तथा असंख्येय योजन पीछे के पदार्थ ही जाने व देखे जाते हैं, पार्वतः अन्तगत अवधिज्ञान से दोनों बाजुओं में रहे हए संख्येय तथा असंख्येय योजन तक के पदार्थ ही जाने व देखे जाते हैं किन्तु मध्यगत अवधिज्ञान से सभी ओर के संख्येय तथा असंख्येय योजन के बीच में रहे हुए पदार्थ जाने व देखे जाते हैं। यही अन्तगत अवधि और मध्यगत अवधि में विशेषता है। यहाँ तक आनुगामिक अवधिज्ञान की चर्चा है । अनानुगामिक अवविज्ञान का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जैसे कोई पुरुष एक बड़े अग्नि स्थान में अग्नि जलाकर उसी के आसपास घूमता हुआ उसके इर्दगिर्द के पदार्थों को देखता है, दूसरी जगह रहे हुए पदार्थों को अन्धकार के कारण नहीं देख सकता, इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है उसी क्षेत्र के संख्येय तथा असंख्येय योजन तक के सम्बद्ध या असम्बद्ध पदार्थों को जानता व देखता है। उससे बाहर के पदार्थों को नहीं जानता। जो प्रशस्त अध्यवसाय में स्थित है तथा जिसका चारित्र परिणामों की विशुद्धि से वर्धमान है
1.
सू. ९.
२. सू.१०.
३. सू. ११.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org