________________
नन्दी
३०७
अज्ञायिका कहलाती है । जिस प्रकार कोई ग्रामीण पंडित किसी भी विषय में विद्वत्ता नहीं रखता और न अनादर के भय से किसी विद्वान् को ही कुछ पूछता है किन्तु केवल वातपूर्ण वस्ति - वायु से भरी हुई मशक के समान लोगों से अपने पाण्डित्य की प्रशंसा सुनकर फूलता रहता है इसी प्रकार जो लोग अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझते उनकी सभा दुर्विदग्धा कहलाती है ।
ज्ञानवाद :
इतनी भूमिका बाँधने के बाद सूत्रकार अपने मूल विषय पर आते हैं । वह विषय है ज्ञान । ज्ञान क्या है ? ज्ञान पांच प्रकार का है : १. आभिनित्रोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मन:पर्ययज्ञान और ५. केवलज्ञान ( से किं तं नाणं ? नाणं पंचविहं पन्नतं, तंजहा - आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपब्जवनाणं, केवलनाणं ) । यह ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का है : प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष का क्या स्वरूप है ? प्रत्यक्ष के पुनः दो भेद हैं : इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष क्या है ? इन्द्रियप्रत्यक्ष पांच प्रकार का है : १. श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, २ चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, ३. प्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, ४. जिह्वेन्द्रियप्रत्यक्ष, ५. स्पर्शेन्द्रियप्रत्यक्ष । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष क्या है ? नोइन्द्रियप्रत्यक्ष तीन प्रकार का है : १. अवधिज्ञानप्रत्यक्ष, २. मन:पर्ययज्ञानप्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष ।'
अवधिज्ञान :
अवधिज्ञान प्रत्यक्ष क्या है ? अवधिज्ञानप्रत्यक्ष दो प्रकार का है : भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक | भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कौन-सा है ! भवप्रत्ययिक अर्थात् जन्म से होने वाला अवधिज्ञान दो को होता है : देवों को और नारकों को । क्षायोपशमिक अवधिज्ञान क्या है ? क्षायोपशमिक अवधिज्ञान भी दो को होता है : मनुष्यों को और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों को । इसे क्षायोपशमिक क्यों कहते हैं ? अवधिज्ञान के आवरक कर्मों में से उदीर्ण का क्षय तथा अनुदीर्ण का उपशमन होने पर उत्पन्न होने के कारण इसे क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं : खाओवसमियं तयाचरणिजाणं कम्माणं उदिष्णाणं खएणं अणुदिष्णाणं उवसमेणं ओहिनाणं समुपज्जइ । अथवा गुणप्रतिपन्न अनगार – मुनि को जो अवधिज्ञान होता है वह क्षायोपशमिक है । क्षायोपशमिक अवधिज्ञान संक्षेप में छः प्रकार का कहा गया है : १. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, ३. वर्धमानक, ४. हीयमानक ५०
१. सू. १. २. सू. २-५.
Jain Education International
३. सू. ८.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org