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पंचम प्रकरण महानिशीथ
भाषा व विषय की दृष्टि से इस सूत्र' की गणना प्राचीन आगमों में नहीं की जा सकती। इसमें यत्र-तत्र आगमेतर ग्रंथों के उल्लेख भी मिलते हैं। इसमें छः अध्ययन व दो चूलाएँ हैं । यह ग्रन्थ ४५५४ श्लोकप्रमाण है । प्रारंभ में ग्रन्थ के प्रयोजन की चर्चा है। अध्ययन :
शल्योद्धरण नामक प्रथम अध्ययन में पापरूपी शल्य की निन्दा व आलोचना करने की दृष्टि से अठारह पापस्थानक बताये गये हैं। इसमें आवश्यक-नियुक्ति की 'हयं नाणं' इत्यादि गाथाएँ उद्धत हैं । द्वितीय अध्ययन में कर्मविपाक का विवेचन करते हुए पापों की आलोचना पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय एवं चतुर्थ अध्ययनों में कुशील साधुओं के संसर्ग से दूर रहने का उपदेश दिया गया है। इनमें मंत्र-तंत्र, नमस्कारमन्त्र, उपधान, अनुकम्पा, जिनपूजा आदि का विवेचन है। यहाँ यह बताया गया है कि वज्रस्वामी ने व्युच्छिन्न पंचमंगल की नियुक्ति आदि का उद्धार करके इसे मूलसूत्र में स्थान दिया । नवनीतसार नामक पंचम अध्ययन में गच्छ के स्वरूप का विवेचन किया गया है। गच्छाचार नामक प्रकीगंक का आधार यही अध्ययन है। षष्ठ अध्ययन में प्रायश्चित्त के दस व आलोचना के चार भेदों का व्याख्यान है। इसमें आचार्य भद्र के एक गच्छ में पाँच सौ साधु व बारह सौ साध्वियों के होने का उल्लेख है । चूलाएँ:
चूलाओं में सुसढ आदि की कथाएँ हैं। यहाँ सती प्रथा का तथा राजा के पुत्रहीन होने पर कन्या को राजगद्दी पर बैठाने का उल्लेख है। १. मालोचनात्मक अध्ययन-W. Schubring, Berlin, 1918; F. R.
Hamm and W. Schubring, Hamburg, 1951; J. Deleu and W. Schubring, Ahmedabad, S. 1933.
मुनि श्री पुण्यविजयजी के पास इसकी हस्तलिखित प्रति है।
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