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________________ निशीथ २८१ निमित्त बनाया हुआ) आहार करे, लाभालाभ का निमित्त बतावे, किसी निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थी को बहकावे, किसी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी का अपहरण करे, किसी दीक्षार्थी गृहस्थ-गृहस्थिनी को बहकावे अथवा उसका अपहरण करे, आपस में झगड़ा होने पर बिना प्रायश्चित्त एवं क्षमा याचना के तीन रात से अधिक रहनेवाले के साथ आहारपानी करे, उद्घातिक अर्थात् लघु प्रायश्चित्त वाले को अनुदातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त वाला कहे अथवा अनुद्धातिक प्रायश्चित्त वाले को उद्घातिक प्रायश्चित्त वाला कहे, उद्घातिक प्रायश्चित्त वाले को अनुदातिक प्रायश्चित्त दे एवं अनुद्धांतिक प्रायश्चित्त वाले को उद्घातिक प्रायश्चित्त दे, प्रायश्चित्त वाले के साथ आहार-पानी करे, सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के प्रति निःशंक होकर आहारादि का उपभोग करते हुए अन्यथा प्रतीति होने पर आहारादि का त्याग न करे ( मुख से ग्रास आदि बाहर न निकाले), रात को अथवा शाम को डकार (उद्गार) आने पर सावधानीपूर्वक न थूके-मुखशुद्धि न करे, रोगी आदि ( साधु अथवा साध्वी ) की सेवासुभ्रूषा न करे, प्रथम पावस में ग्रामानुग्राम विचरण करे', वर्षावास में विहार करे, पर्युषण ( वर्षावास ) के काल के बिना ही पर्युषण करे, पर्युषण के समय पर्युषण न करे, पर्युषण (संवत्सरी) के दिन गोलोम-मात्र भी बाल (अपने सिर आदि पर ) रखे, पर्युषण के दिन जरा-सा भी आहार सेवन करे, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पर्युषण (सांवत्सरिक प्रतिक्रमण) करावे, प्रथम समवसरण (चातु सि) प्रारम्भ होने के बाद एवं समाप्त होने के पूर्व (प्रथम समवसरण में) वस्त्र की याचना करे वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। ग्यारहवाँ उद्देश : ___ इस उद्देश में भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित क्रियाओं का वर्णन किया गया है। वे क्रियाएँ निम्नलिखित हैं:___ लौहपात्र बनाना, लौहपात्र रखना, लौहपात्र में आहार करना, इसी प्रकार अन्य धातुओं के पात्र उपयोग में लाना, दंत, शृंग, वस्त्र, चर्म, श्वेत ( पत्थर), रत्न, शंख, वज्र आदि के पात्र काम में लाना (मिट्टी, अलाबु एवं काष्ठ के पात्र १. इस समय पूरी वर्षाऋतु अर्थात् वर्षा के चार मास समाप्त होने के बाद ही विहार किया जाता है। २. पर्युषण (संवत्सरी) की तिथि वर्षाऋतु प्रारम्भ होने के ५० दिन बाद एवं समाप्त होने के ७० दिन पहले (भाद्रपद शुक्ला पंचमी) भाती है। देखिए-समवायांग, सू० ७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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