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औपपातिक वेष्ठित, कपिशीर्षकों ( कंगूरों) से शोभित तथा अट्टालिका, चरिका ( गृह और प्राकार के बीच में हाथी आदि के जाने का मार्ग), द्वार, गोपुर और तोरणों से मंडित थी । गोपुर के अर्गल ( मूसल ) और इन्द्रकील (ओट ) कुशल शिल्पियों द्वारा बनाये गये थे। यहाँ के बाजारों में वणिक और शिल्पी अपना-अपना माल बेचते थे। चम्पा नगरी के राजमार्ग सुन्दर थे और हाथियों, घोड़ों, रथों और पालकियों के आवागमन से आकीर्ण रहते थे (सूत्र १)।
चम्पा के उत्तर-पूर्व में पुरातन और सुप्रसिद्ध पूर्णभद्र नामक एक चैत्य था। यह चैत्य वेदी, छत्र, ध्वजा और घंटे से शोभित था । रूंए की बनी मार्जनी से यहाँ बुहारी दी जाती, भूमि गोबर से लीपी जाती और दीवाले खड़िया मिट्टी से पोती जाती थीं। गोशीर्ष और रक्तचन्दन के पाँच उँगलियों के थापे यहाँ लगे थे। द्वार पर चन्दन-कलश रखे थे, तोरण बधे थे और पुष्पमालाएँ लटक रही थीं। यह चैत्य विविध रंगों के पुष्प, कुन्दुरुक्क (चीडा ), तुरुष्क' (सिल्हक) और गंधगुटिकाओं की सुगन्धि से महकता था । नट, नतेक आदि यहाँ अपना खेल दिखाते और भक्त लोग अपनी मनोकामना की सिद्धि के लिए चन्दन आदि से पूजा-अर्चना किया करते थे (२)।
- यह चैत्य एक वनखंड से वेष्ठित था जिसमें अनेक प्रकार के वृक्ष लगे थे। वृक्ष पत्र, पुष्प और फलों से आच्छादित थे, जिन पर नाना पक्षी क्रीड़ा करते थे। ये वृक्ष भाँति-भाँति की लताओं से परिवेष्टित थे। यहाँ रथ आदि वाहन खड़े किये जाते थे ( ३)।
चम्पा नगरी में भम्भसार का पुत्र राजा कुणिक राज्य करता था। यह राजा कुलीन, राजलक्षणों से सम्पन्न, राज्याभिषिक्त, विपुल भवन, शयन, आसन,
१. तुरुष्को यवनदेशजः-हेमचन्द्र, अभिधानचिन्तामणि (३-३१२)। २. भम्भसार या भिंभिसार (बिंबिसार ) श्रेणिक का ही दूसरा नाम है।
एक किंवदन्ती के अनुसार एक बार कुशाग्रपुर (राजगृह) में आग लगने पर राजा प्रसेनजित और उसके सब कुमार महल छोड़कर भाग गये । भागते समय किसी ने घोड़ा लिया, किसी ने रत्न और किसी ने मणि-माणिक्य, लेकिन श्रेणिक एक भम्भा उठाकर भागा। प्रसेनजित के पूछने पर श्रेणिक ने उत्तर दिया कि भम्भा राजा की विजय का चिह्न है,
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