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व्यवहार
२६९ किया जाता है वह सप्तरात्रिंदिनी शैक्ष-भूमि है। षण्मासिकी शैक्ष-भूमि उत्कृष्ट, चातुर्मासिकी मध्यम तथा सप्तरात्रिंदिनी जघन्य है ।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को आठ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं के साथ भोजन करना अकल्प्य है अर्थात् आठ वर्ष से कम उम्र के बालक-बालिकाओं को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। छोटी उम्र वाले साधु-साध्वी जिनके कक्षादि में बाल न उगे हों, आचारकल्प-आचारांग सूत्र के अधिकारी नहीं हैं। उन्हें कक्षादि में बाल उगने पर ही (परिपक्क अवस्था होने पर ही) आचारांग पढ़ाना चाहिए। (परिपक अवस्था होने पर भी) कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारांग पढ़ाना कल्प्य है। चार वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले को सूत्रकृतांग, पाँच वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले को दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार, आठ वर्ष की दीक्षा वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष की दीक्षा वाले को व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ग्यारह वर्ष की दीक्षा वाले को लघुविमान-प्रविभक्ति, महाविमान-प्रविभक्ति, अंगचूलिका, वंगचूलिका
और विवाहचूलिका, बारह वर्ष की दीक्षा वाले को अरुणोपपातिक, गरुलोपपातिक, धरणोपपातिक, वैश्रमणोपपातिक और वैलंधरोपपातिक, तेरह वर्ष की दीक्षा वाले को उपस्थानश्रुत, समुपस्थानश्रुत, देवेन्द्रोपपात और नागपरियापनिका ( नागपरियावणिआ), चौदह वर्ष की दीक्षा वाले को स्वप्नभावना, पन्द्रह वर्ष की दीक्षा वाले को चारणभावना, सोलह वर्ष की दीक्षा वाले को वेदनीशतक, सत्रह वर्ष की दीक्षा वाले को आशीविषभावना, अठारह वर्ष की दीक्षा वाले को दृष्टिविषभावना, उन्नीस वर्ष की दीक्षा वाले को दृष्टिवाद और बीस वर्ष की दीक्षा वाले को सब प्रकार के शास्त्र पढ़ाना कल्प्य है।
वैयावृत्य ( सेवा ) दस प्रकार की कही गई है : १. आचार्य की वैयावृत्य, २. उपाध्याय की वैयावृत्य, ३. स्थविर की वैयावृत्य, ४. तपस्वी की वैयावृत्य, ५. शैक्ष-छात्र की वैयावृत्य, ६. ग्लान-रुग्ण की वैयावृत्य, ७. साधर्मिक की वैयावृत्य, ८. कुल की वैयावृत्य, ९. गण की वैयावृत्य और १०. संघ की वैयावृत्य । उपर्युक्त दस प्रकार की वैयावृत्य से महानिर्जरा का लाभ होता है। दस प्रकार की वैयावृत्य के वर्णन के साथ दसवां उद्देश समाप्त होता है और साथ ही व्यवहार सूत्र भी।
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