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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास धारण करने वाला श्रमण एक मास पर्यन्त अपने शरीर के ममत्व का त्याग कर प्रत्येक प्रकार के उपसर्ग-कष्ट को समभावपूर्वक सहता है। उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं : देवजन्य, मनुष्यजन्य और तिर्यञ्चजन्य। ये तीनों प्रकार के उपसर्ग अनुलोम-अनुकूल एवं प्रतिलोम-प्रतिकूल के भेद से दो प्रकार के होते हैं। यवमध्य-चन्द्रप्रतिमा को धारण करने वाला साधु शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति' आहार की और एक दत्ति पानी की ग्रहण करता है। द्वितीया को दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है। इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को पन्द्रह दत्ति आहार की व पन्द्रह दत्ति पानी की ग्रहण करता है। कृष्णपक्ष में क्रमशः एक-एक दत्ति कम करता जाता है। अन्त में अमावस्या के दिन उपवास करता है। वज्रमध्य-चन्द्रप्रतिमा में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को पन्द्रह दत्ति आहार की एवं पन्द्रह दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है यावत् अमावस्या को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की ली जाती है। शुक्लपक्ष में क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को उपवास किया जाता है। इस प्रकार तीस दिन की प्रत्येक प्रतिमा में प्रारम्भ के उनतीस दिन आहार-पानी व अन्तिम दिन उपवास किया जाता है।
व्यवहार पाँच प्रकार का कहा गया है : आगम-व्यवहार, श्रुत-व्यवहार, आज्ञा-व्यवहार, धारणा व्यवहार और जीत-व्यवहार। इनमें से आगमव्यवहार का स्थान सर्वप्रथम है, फिर क्रमशः श्रुतव्यवहार आदि का स्थान है । जीतकल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य आदि में पाँच प्रकार के व्यवहार का विस्तृत विवेचन है।
__ स्थविर तीन प्रकार के कहे गये हैं : जाति-स्थविर, सूत्र-स्थविर और प्रव्रज्या-स्थविर । साठ वर्ष की आयु वाला श्रमण नाति-स्थविर कहलाता है । स्थानांग-समवायांग आदि सूत्रों का ज्ञाता (साधु ) सूत्र-स्थविर कहलाता है । दीक्षा धारण करने के बीस वर्ष बाद निग्रन्थ प्रव्रज्या-स्थविर कहलाता है।
शैक्ष-भूमियाँ तीन प्रकार की होती हैं : सप्तरात्रिंदिनी, चातुर्मासिकी भौर घण्मासिकी । दीक्षा के छः महीने बाद महाव्रतारोपण ( बड़ी दीक्षा) करने का नाम षण्मासिकी शैक्ष-भूमि है। दीक्षा के चार महीने बाद महाव्रतारोपण करना चातुर्मासिकी शैक्ष-भूमि कहलाता है। दीक्षा के सात दिन बाद जो महावतारोपण १. एक ही समय में एक साथ बिना धारा तोड़े जितना आहार अथवा पानी
साधु के पात्र में डाल दिया जाता है उसे 'दत्ति' कहते हैं।
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