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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ___ अंगों की रचना गणधरों ने की है और उपांगों की स्थविरों ने, इसलिए अंगों और उपांगों का कोई सम्बन्धविशेष सिद्ध नहीं होता। दोनों का क्रमिक उल्लेख भी किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता। लेकिन अर्वाचीन आचार्यों ने अंगों और उपांगों का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। उदाहरण के लिए, श्रीचन्दसूरि (विक्रम की १२ वीं शताब्दी) ने अपनी सुहबोहसामायारी ( अणुहाणविहि, पृ० ३१ ब-३२ अ) में उववाइय उपांग को आयारांग का, रायपसेण इय को सूयगडंग का, जीवाभिगम को ठाणांग का, पन्नवणा' को समवायांग का, सूरपन्नत्ति को भगवती का, जंबुद्दीवपन्नत्ति को नायाधम्मकहाओ का, चंदपन्नत्ति को उवासगदसाओ का, निरयावलिया को अंतगडदसाओ का, कप्पवडंसिआओ को अणुत्तरोववाइयदसाओ का, पुफिआओ को पण्हवागरणाई का, पुष्कचूलिआओ को विवागसुय का तथा वण्हिदसाओ को दिहिवाय अंग का उपांग स्वीकार किया है। स्वयं उववाइय के टीकाकार अभयदेवसूरि (११ वीं शताब्दी) उववाइय को आयारांग का उपांग मानते हैं । रायपसेणहय के टीकाकार मलयगिरि (१२ वीं शताब्दी) ने भी रायपसेणइय को सूयगडंग का उपांग प्रतिपादन करते हुए कहा है कि अक्रियावादी मत को स्वीकार करके ही रायपसेगडय सूत्र में उल्लिखित राजा प्रदेशी ने जीवविषयक प्रश्न किया है, इसलिए रायपसेणइय को सूयगडंग का उपांग मानना उचित है। लेकिन देखा जाय तो जैसे जीवाभिगम और ठाणांग का, सूरपन्नत्ति और भगवती का, चंदपन्नत्ति और उवासगदसाओ का, तथा वहिदसाओ और दिहिवाय का पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता, उसी प्रकार रायपसेणइय और सूयगडंग का भी कोई सम्बन्ध नहीं है। ____ द्वादश उपांगों का उववाइय आदि क्रम भी ऐतिहासिक दृष्टि से समुचित मालूम नहीं होता। उदाहरण के लिए, पन्नवणा नामक चतुर्थ उपांग के कर्ता आर्य श्याम माने जाते हैं जो महावीर-निर्वाण के ३७६ ( या ३८६) वर्ष बाद मौजूद थे, लेकिन फिर भी इसे पहला उपांग न मानकर चौथा उपांग माना गया है । उपांग-साहित्य में ही नहीं, अंग-साहित्य में भी वाचना-भेद तथा दुष्काल आदि असाधारण परिस्थितियों के कारण अनेक सूत्रों के स्खलित हो जाने से जैन आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर विशृंखलता उत्पन्न हो गयी है जिसका उल्लेख १. यशोदेवसूरि ने पक्षियसुत्त में प्रज्ञापना और बृहत्प्रज्ञापना दोनों को समवायांग के उपांग कहा है। देखिये-एच० आर० कापडिया, हिस्ट्री भऑफ द कैनौनिकल लिटरेचर आफ द जैन्स, पृ० ३१. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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