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________________ २२६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अभिग्रह अर्थात् प्रतिज्ञाविशेष है ) । मासिकी भिक्षु प्रतिमा- प्रतिपन्न निर्ग्रन्थ का भिक्षा - काल तीन भागों में विभाजित किया गया है : आदि, मध्य और चरम । आदिभाग में भिक्षा के लिए जाने पर मध्य और चरमभाग में नहीं जाना चाहिए । इसी प्रकार शेष दो भागों के विषय में भी समझ लेना चाहिए । मासिकी प्रतिमा में स्थित श्रमण को जहाँ कोई जानता हो वहाँ वह एक रात रह सकता है, जहाँ उसे कोई भी नहीं जानता हो वहाँ वह दो रात रह सकता है । इससे अधिक - रहने पर उतने ही दिन का छेद अथवा तप प्रायश्चित्त लगता है । मासिकी प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार को चार प्रकार की भाषा कल्प्य है : आहारादि के लिए याचना करने की, मार्गादि के विषय में पूछने की, स्थानादि के लिए अनुमति लेने की एवं प्रश्नों के उत्तर देने की । इस प्रतिमा में स्थित साधु के लिए सूत्रकार ने और भी अनेक बातों का विधान किया है जिसे पढ़कर जैन आचार की कठोरता का • सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति उसके उपाश्रय ( निवास स्थान ) में आग लगा दे तो भी उसे उपाश्रय से बाहर नहीं निकलना चाहिए और यदि बाहर हो तो भीतर नहीं जाना चाहिए । यदि कोई उसकी भुजा पकड़ कर खींचने का प्रयत्न करे तो उसे हठ न करते हुए सावधानीपूर्वक बाहर निकल जाना चाहिए। इसी प्रकार यदि उसके पैर में लकड़ी का ठूंठ, काँटा, कंकड़ आदि घुस जाएँ तो उसे काँटा आदि न निकालते हुए सावधानी से चलते रहना चाहिए। सामने यदि महोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, भैंसा, कुत्ता, व्याघ्र आदि आ जाएँ तो भी उसे उनसे डरकर एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिए । यदि कोई भोला-भाला जीव सामने आ जाये और वह साधु से डरने लगे तो साधु को चार हाथ दूर तक पीछे हट जाना चाहिए। शीत स्थान से शीतलता के भय से उठकर उष्ण स्थान पर अथवा उष्ण स्थान से उष्णता के डर से उठकर शीत स्थान पर नहीं जाना चाहिए। उसे जिस समय जहाँ बैठा हो उस समय वहीं पर बैठे हुए शीतलता अथवा उष्णता के परीपद को धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिए । इसी प्रकार सूत्रकार ने अन्य प्रतिमाओं के स्वरूप का भी स्पष्ट विवेचन किया है । पर्युषणा -कल्प ( कल्पसूत्र ) : आठवें उद्देश का नाम पर्युषणा- कल्प है । वर्षाऋतु में मुनियों के एक स्थान पर स्थिर वास करने का नाम पर्युषणा है । इसकी व्युत्पत्तियों है-परितः सामस्त्येन, उषणा वासः, इति पर्युषणा । प्रस्तुत उद्देश में पर्युषणा-काल में पठन-पाठन के लिए विशेष उपयोगी श्रमण भगवान् महावीर के जन्मादि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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