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दशाश्रुतस्कन्ध
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ज्ञाति-जाति के लोगों से उसके प्रेम-बन्धन का व्यवच्छेद नहीं होता अतः वह उन्हीं के यहाँ भिक्षा-वृत्ति के लिए जाता है। दूसरे शब्दों में ग्यारहवीं प्रतिमा में स्थित श्रमणोपासक अपनी जाति के लोगों से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा ग्रहण करते समय उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि दाता के यहाँ जाने के पूर्व चावल पक चुके हों और दाल (सूप) न पकी हो तो उसे चावल ले लेने चाहिए, दाल नहीं । इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो और चावल न पके हों तो दाल ले लेनी चाहिए, चावल नहीं। पहुँचने के पहले दोनों वस्तुएँ पक चुकी हो तो दोनों को ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है। यदि दोनों बाद में बने हों तो उनमें से एक भी ग्रहण के योग्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु उसके पहुँचने के पूर्व बन कर तैयार हो चुकी हो उसी को उसे ग्रहण करना चाहिए, बाद में बनने वाली को नहीं । इस प्रतिमा की उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह मास है। भिक्षु-प्रतिमाएँ: ____ सातवें उद्देश में भिक्षु अर्थात् श्रमण की प्रतिमाओं का वर्णन है । भिक्षुप्रतिमाओं की संख्या बारह है : १. मासिकी भिक्षु प्रतिमा, २. द्विमासिकी भिक्षु. प्रतिमा, ३-७. यावत् सप्तमासिकी भिक्षु-प्रतिमा, ८-१०. प्रथम, द्वितीय व तृतीय सप्तरात्रिंदिवा भिक्षु-प्रतिमा, ११. अहोरात्रि भिक्षु-प्रतिमा, १२. एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा।
मासिकी प्रतिमाधारी अनगार (गृहविहीन), व्युत्सृष्टकाय ( शारीरिक संस्कारों का त्याग करने वाले ), त्यक्तशरीर ( शरीर का ममत्व छोड़ने वाले) साधु को यदि कोई उपसर्ग (विपत्ति) उत्पन्न हो तो उसे क्षमापूर्वक सहन करना चाहिए तथा किसी प्रकार का दैन्यभाव नहीं दिखाना चाहिए। इस प्रतिमा में साधु को एक दत्ति' अन्न की एवं एक दत्ति जल की लेना कल्प्य-विहित है । वह भी अज्ञात कुल से शुद्ध एवं स्तोक-थोड़ी मात्रा में तथा मनुष्य, पशु, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी (वनीपक) आदि के चले जाने पर ही लेना विहित है। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहीं से भोजन ग्रहण करना चाहिए । गर्भवती के लिए, बच्चे वाली के लिए, बच्चे को दूध पिलाने वाली के लिए बना हुआ भोजन अकल्प्य-निषिद्ध है। जिसके दोनों पैर देहली के भीतर हों अथवा दोनों पैर देहली के बाहर हो उससे आहार नहीं लेना चाहिए। जो एक पैर देहली के भीतर एवं एक देहली के बाहर रख कर भिक्षा दे उसी से भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए (यह १. साधु के पात्र में अन्न या जल डालते समय दीयमान पदार्थ की अखण्ड
धारा बनी रहने का नाम 'दत्ति' है।
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