SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन केशी - इस लोक में बहुत से जीव कर्मरूपी जाल में बद्ध दिखाई देते हैं,. फिर आप बन्धनों को छेद लघु होकर कैसे विहार करते हैं ? गौतम - मैं उचित उपायों द्वारा बन्धनों का नाश कर लघु होकर विहार करता हूँ । केशी - शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए सुखकर और बाधारहित स्थान कौन-सा है ? गौतम - यह स्थान ध्रुव है, लोक के अग्रभाग में स्थित है, यहाँ पहुँचना बहुत कठिन है; जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना का यहाँ भय नहीं । केवल महर्षि ही यहाँ पहुँच सकते हैं ( १–८६ ) । 1 प्रवचनमाता : पाँच समितियों और तीन गुप्तियों को आठ प्रवचनमाता कहा गया है। ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदानभंडनिक्षेपण और उच्चारादिप्रतिष्ठापन - ये पाँच समितियाँ हैं । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति- ये तीन गुप्तियाँ हैं (१-३) यज्ञीय : १६७ एक बार ब्राह्मण कुलोत्पन्न जयघोष नामक मुनि विहार करते हुए बनारस के उद्यान में आकर ठहरे । उस समय वहाँ विजयघोष नामक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था । जयघोष विजयघोष की यज्ञशाला में भिक्षा के लिए उपस्थित हुए । विजयघोष ने भिक्षु को देखकर कहा - हे भिक्षु ! मैं तुझे भिक्षा न दूँगा, तू अन्यत्र नाकर भिक्षा माँग । यह भोजन वेदों के पारंगत, यज्ञार्थी, ज्योतिषशास्त्रसहित छः अङ्गों के ज्ञाता तथा अपने और दूसरों को पार उतारने में समर्थ केवल ब्राह्मणों के लिए ही सुरक्षित है । वेदों और यज्ञों का वास्तविक स्वरूप प्रतिपादन करते हुए जयघोष ने कहावेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है, धर्म का मुख काश्यप ( ऋषभदेव ) है । इस लोक में है उसे कुशल पुरुष ब्राह्मण कहते हैं । सिर मूँड़ा लेने १. तुलना कीजिए न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो । यहि सच्चं व धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only जो अग्नि की तरह पूज्य से श्रमण नहीं होता, -- - धम्मपद, ब्राह्मणवग्गो १४* www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy