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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पुत्र - पिता जी ! वेदों के अध्ययन से जीवों को शरण नहीं मिलती और ब्राह्मणों को भोजन कराने से नरक की ही प्राप्ति होती है; पुत्र भी रक्षा नहीं करते, फिर आपकी बात को कौन स्वीकार करेगा ? कामभोग क्षणमात्र के लिए सुख देते हैं, उनसे प्रायः दुःख की ही प्राप्ति होती है, मुक्ति नहीं मिलती । १५८ पिता - जैसे अरणि में से अग्नि, दूध में से घी और तिलों में से तेल पैदा होता है उसी प्रकार शरीर में जीव की उत्पत्ति होती है और शरीर के नाश होने पर उसका नाश हो जाता है । पुत्र - आत्मा के अमूर्त होने के कारण वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है । अमूर्त होने के कारण वह नित्य है । अमूर्त होने पर भी मिध्यात्व आदि के कारण आत्मा बंधन में बद्ध है, यही संसार का कारण है । पिता - यह लोक किससे पीड़ित है ? किससे शस्त्रों का प्रहार इस पर हो रहा है ? यह जानने के लिए मैं चिन्तित हूँ । व्याप्त है ? कौन से तीक्ष्ण पुत्र - पिता जी ! यह लोक मृत्यु से रात्रियाँ अपने अमोघ प्रहार द्वारा इसे जाती है, वह फिर लौटकर नहीं आती । वाले व्यक्ति की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं । पीड़ित है, जरा से व्याप्त है और क्षीण कर रही हैं। जो रात्रि व्यतीत हो ऐसी हालत में अधर्म का आचरण करने पिता-पुत्रो ! सम्यक्त्व प्राप्त कर हम सब कुछ दिनों तक साथ रहने के चाद घर-घर भिक्षा ग्रहण करते हुए मुनित्रत धारण करेंगे । पुत्र - जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता है, अथवा जो मृत्यु का नाश करता है और जिसे यह विश्वास है कि वह मरनेवाला नहीं, वही आगामी कल का विश्वास कर सकता है । अपने पुत्रों के वचन सुनकर पुरोहित का हृदय परिवर्तन हो गया और अपनी पत्नी को बुलाकर वह कहने लगा हे वाशिष्ठ ! बिना पुत्रों के मैं इस गृहस्थी में नहीं रहना चाहता, अब मेरा भिक्षुधर्म ग्रहण करने का समय आ गया है । जैसे शाखाओं के कारण वृक्ष सुन्दर लगता है, बिना शाखाओं के ठूंठ मात्र रह जाता है, इसी प्रकार बिना पुत्रों के मेरा गृहस्थ जीवन शोभनीय नहीं मालूम होता । Jain Education International पत्नी - सौभाग्य से सरस और सुन्दर कामभोग हमें प्राप्त हुए हैं, इसलिए इनका यथेच्छ सेवन करने के बाद ही हम दोनों संयममार्ग ग्रहण करेंगे । जैसे कोई बूढ़ा हंस प्रवाह के विरुद्ध जाने के कारण कष्ट पाता है, वैसे ही तुम प्रव्रज्या For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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