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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पहला अध्ययन -द्वारवती ( द्वारका) नगरी के उत्तर-पूर्व में रैवतक नाम का पर्वत था । यह पर्वत ऊँचा था, अनेक वृक्ष और लता आदि से मण्डित था, हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस आदि पक्षी यहाँ निवास करते थे, देवगण क्रीडा किया करते थे तथा दशार्ण राजाओं को यह अत्यन्त प्रिय था । इस पर्वत के पास ही नन्दन वन था जहाँ सब ऋतुओं के फूल खिलते थे । इस वन में सुरप्रिय नाम का एक यक्ष रहता था । उसकी लोग पूजा-उपासना किया करते थे ।
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द्वारवती नगरी में कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे । वे समुद्रविजयप्रमुख दस दशार्ण राजा, बलदेवप्रमुख पाँच महावीर, उग्रसेनप्रमुख राजा, प्रद्युम्नप्रमुख कुमार, शंबप्रमुख योद्धा, वीरसेनप्रमुख वीर, रुक्मिणीप्रमुख रानियों तथा अनङ्गसेना आदि गणिकाओं से घिरे रहते थे । द्वारवती में बलदेव नाम का राजा रहता था । उसकी रानी का नाम रेवती था । उसने निसढकुमार को जन्म दिया ।
उस समय अरिष्टनेमि द्वारवती में पधारे । उनका आगमन सुन कृष्ण ने अपने कौटुम्बिक पुरुष को बुलाकर सामुदानिक भेरी द्वारा अरिष्टनेमि के आगमन की सूचना नगरवासियों को देने का आदेश दिया । भेरी की घोषणा सुन अनेक राजा, ईश्वर, सार्थवाह आदि कृष्ण की सेवा में उपस्थित हो जय-विजय से उन्हें बधाई देने लगे। उसके बाद कृष्ण वासुदेव हाथी पर सवार हो अपने दलबल सहित भगवान् की वन्दना करने चले । निसढकुमार ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये । इसके बाद निसट के पूर्वभव का वर्णन है ।
रोहीडय ( रोहतक, पञ्जाब ) नगर में महाबल नाम का राजा राज्य करता था । उसके वीरङ्गय नाम का पुत्र था । एक बार सिद्धार्थ आचार्य उस नगर में आये और मणिदत्त नाम के यक्षायतन में ठहर गये । वीरङ्गय ने सिद्धार्थ के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की और कालान्तर में सल्लेखना द्वारा शरीर त्याग कर स्वर्ग प्राप्त किया । वहाँ से च्युत होकर उसने द्वारवती में बलदेव राजा और रेवती रानी के घर जन्म लिया । कालान्तर में उसने निर्वाण प्राप्त किया ।
इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययन समझने चाहिये ।
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१. सुरप्रिय यक्ष की कथा के लिए देखिए – आवश्यकचूर्णि, पृ० ८७ आदि । २. बृहत्कल्पभाष्य ( पीठिका, गा० ३५६ ) में कृष्ण की चार भेरियों का उल्लेख है :- - कोमुइया, सङ्गामिया, दुब्भूइया और असिवोवसमणी ।
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