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निरयावलिका
१३७ ऐसी बातें सुनती तक नहीं, उनका उपदेश देना या उनकी विधि बताना तो दूर रहा। वे तो सिर्फ केवली भगवान् का कहा हुआ उपदेश देती हैं। आर्यिका के उपदेश से प्रभावित हो सुभद्रा श्रमणोपासिका बन गई। कुछ दिनों के बाद अपने पति की अनुमति प्राप्त कर, समस्त आभरण आदि का त्याग कर और पञ्चमुष्टि द्वारा केशों का लोच कर' सुभद्रा ने सुव्रता के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की। __ आर्यिका होते हुए भी सुभद्रा का मोह शिशुओं में अधिक था। कभी वह बच्चों को उबटन लगाती, उनका शृङ्गार करती, उन्हें भोजन खिलाती, उन्हें गोदी में बैठाती और उनके साथ विविध क्रीडा करती । सुव्रता ने सुभद्रा को समझाया कि देखो, साध्वी के लिये यह उचित नहीं, लेकिन उसने कोई ध्यान नहीं दिया । इस पर अन्य श्रमणियाँ भी सुभद्रा की अवगणना करने लगी।
__सुभद्रा को यह अच्छा न लगा और वह किसी अलग उपाश्रय में जाकर रहने लगी। कई वर्षों तक वह श्रमणधर्म का पालन करती रही। उसके बाद सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न हुई।
स्वर्ग से च्युत होकर वह विभेल संनिवेश में एक ब्राह्मण के घर उत्पन्न हुई। उसका नोम सोमा रखा गया । युवावस्था प्राप्त करने पर अपने भानजे के साथ उसका विवाह हो गया। उसके बहुत से पुत्र और पुत्रियाँ हुई। ये सब नाचतेकूदते, दौड़ते-भागते, हँसते-रोते, एक दूसरे को मारते-पीटते, रोते-चिल्लाते. और खाना माँगते; उनके शरीर गन्दे और मैले तथा मल-मूत्र में सने रहते । यह देख कर सोमा बहुत तंग आ गई। उसने सोचा कि वन्ध्या माताएँ कितनी धन्य हैं जो निश्चिन्त जीवन व्यतीत करती हैं। यह सोचकर उसने फिर से श्रमणधर्म में दीक्षा ग्रहण कर ली। ___ पाँचवें अध्ययन में पूर्णभद्र, छठे में माणिभद्र, सातवे में दत्त, आठवें में शिव गृहपति, नौवें में बल और दसवें में अणाढिय गृहपति का वर्णन है । पुप्फचूला: ___ इस उपाङ्ग में भी दस अध्ययन हैं :-सिरि, हिरि, धिति, कित्ति, बुद्धि, लच्छी, इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी और गन्धदेवी ।। चण्हिदसा: ___ इस उपाङ्ग में बारह अध्ययन हैं :-निसढ, माअनि, वह, वण्ह, पगता, जुत्ती, दसरह, दढरह, महाधणू, सत्तधणू, दसधणू, सयधणू। 1. राजीमती ने भी केशलोंच करके आर्यिका के व्रत ग्रहण किये थे । देखिए
उत्तराध्ययन का रथनेमीय अध्ययन ।
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