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सप्तम प्रकरण
निरयावलिका annannannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn
निरयावलिया अथवा निरयावलिका' श्रुतस्कन्ध में पाँच उपाङ्ग समाविष्ट हैं:१. निरयावलिया अथवा कप्पिया (कल्पिका ), २. कापवडंसिया (कल्पावतंसिका ), ३. पुल्फिया ( पुष्पिका ), ४. पुष्फचूलिया ( पुष्पचूलिका) और ५. बण्हिदसा ( वृष्णिदशा)। प्रो० विन्टरनित्ज का कथन है कि मूलतः ये पाँचों उपाङ्ग निरयावलि सूत्र के ही नाम से कहे जाते थे, लेकिन आगे चलकर उपाङ्गों की संख्या का अङ्गों की संख्या के साथ साम्य करने के लिये इन्हें अलग-अलग गिना जाने लगा। निरयावलिया सूत्र पर चन्द्रसूरि ने टीका लिखी है।
निरयावलिया:
राजगृह नगर में गुणशिल नाम का एक चैत्य था। वहाँ महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा नामक गणधर विहार करते हुए आये। अपने शिष्य आर्य जम्बू के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने निरयावलिया आदि उपाङ्गों का
१. (अ) चन्द्रसूरिकृत वृत्तिसहित-आगमोदय समिति, सूरत, सन् १९२२. (मा) वृत्ति तथा गुजराती विवेचन के साथ-आगमसंग्रह, बनारस,
सन् १८८५. (इ) प्रस्तावना आदि के साथ-P. L. Vaidya, Poona, 1932; ___A.S, Gopani and V. J. Chokshi, Ahmeda
bad, 1934. (ई) हिन्दी अनुवादसहित-अमोलकऋषि, हैदराबाद, वी० सं०
२४४५. (उ) मूल व टीका के गुजराती अर्थ के साथ-जैनधर्म प्रसारक सभा,
भावनगर, वि० सं० १९९०. (ऊ) संस्कृत व्याख्या व उसके हिन्दी-गुजराती अनुवाद के साथ-मुनि
घासीलाल, जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, सन् १९६०.
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