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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ऊपर भरत चक्रवर्ती पूर्व की ओर मुख करके आसीन हुए। मांडलिक राजाओं ने भरत की प्रदक्षिणा कर जय विजय से उन्हें बधाई दी, सेनापति, पुरोहित, सूपकार, श्रेणी-प्रश्रेणी आदि ने उनका अभिषेक किया तथा उन्हें हार और मुकुट आदि बहुमूल्य आभूषण पहनाये । नगरी में आनन्द-मंगल मनाया जाने लगा (६८)। एक बार की बात है । भरत चक्रवर्ती अपने आदर्शगृह में सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय उन्हें केवलज्ञान हुआ। भरत ने उसी समय आभरण और अलंकारों का त्याग कर पंचमुष्टि लोच किया और राज्य छोड़ कर अष्टापद पर्वत पर प्रस्थान किया । यहाँ उन्होंने निर्वाण पद पाया ( ७०)। चौथा वक्षस्कार: इसमें निम्न विषय हैं:-क्षुद्रहिमवत् पर्वत का वर्णन (७२), इस पर्वत के बीच पद्म नामका एक सरोवर (७३)। गंगा, सिन्धु, रोहितास्या नदियों का वर्णन (७४), क्षुद्रहिमवत् पर्वत पर ग्यारह कूटों का वर्णन (७५), हैमवत क्षेत्र का वर्णन (७६), इस क्षेत्र में शब्दापाती नामक वैताढ्य का वर्णन (७७), महाहिमवत् पर्वत और उस पर्वत के महापद्म नामक सरोवर का वर्णन (७८-७९), हरिवर्ष का वर्णन ( ८२ ), निषध पर्वत और उस पर्वत के तिगिंछ नामक सरोवर का वर्णन ( ८३-८४ ), महाविदेह क्षेत्र और गन्धमादन नामक पर्वत का वर्णन (८५-८६ ), उत्तरकुरु में यमक पर्वत (८७-८८), जम्बूवृक्ष का वर्णन (९०), महाविदेह में मालवंत पर्वत (९१), महाविदेह में कच्छ नामक विजय का वर्णन ( ९३ ), चित्रकूट का वर्णन ( ९४ ), शेष विजयों का वर्णन ( ९५ ), देवकुरु का वर्णन (९९), मेरुपर्वत का वर्णन (१०३), नंदनवन, सौमनसबन आदि का वर्णन (१०४-१०६), नीलपर्वत का वर्णन ( ११०), रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रों का वर्णन (१११ )। 'पाँचवाँ वक्षस्कार : - इसमें आठ दिक्कुमारियों द्वारा तीर्थकर का जन्मोत्सव मनाने का उल्लेख है। ये देवियाँ चार अंगुल छोड़ कर तीर्थकर के नाभिनाल को काटती हैं और फिर गड्ढा खोदकर उसे दबा देती हैं। उस गड्ढे के ऊपर दूब चोती हैं और कदली के पेड़ लगाती हैं। इस कदलीगृह में निर्मित चतुःशाला में 'एक सिंहासन स्थापित किया जाता है। तीर्थकर और उनकी माता को इस सिंहासन पर बैठाकर उन्हें स्नान कराया जाता है और फिर उन्हें वस्त्रालंकार से विभूषित किया जाता है। गोशीर्षचन्दन की लकड़ियाँ जलाकर भूतिकर्म किया जाता है, नजर से रक्षा करने के लिए रक्षापोटली बाँधी जाती है और फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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