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जम्बू दीपप्रज्ञप्ति
१२१ वरदाम तीर्थ में भरत चक्रवर्ती ने वरदामतीर्थकुमार देव की और प्रभास तीर्थ में प्रभासतीर्थकुमार देव की सिद्धि प्राप्त की (४६-४९)। इसी प्रकार सिन्धुदेवी, वैतादयगिरिकुमार और कृतमाल' देव को सिद्ध किया (५०-५१)।
तत्पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने अपने सुषेण नामक सेनापति को सिन्धु नदी के पश्चिम में स्थित निष्कुट प्रदेश को जीतने के लिये भेजा। सुषेण महापराक्रमी
और अनेक म्लेच्छ भाषाओं का पंडित था। वह अपने हाथी पर बैठकर सिन्धु नदी के किनारे पहुँचा और वहाँ से चमड़े की नाव द्वारा नदी में प्रवेश कर उसने सिंहल, बर्बर, अंगलोक, चिलायलोक (चिलाय अर्थात् किरात), यवनद्वीप,
आरबक, रोमक, अलसंड ( एलेक्जेण्ड्रिया), तथा पिक्खुर, कालमुख और जोनक ( यवन ) नामक म्लेच्छों तथा उत्तर वैताढ्य में रहने वाली म्लेच्छ जाति, और दक्षिण-पश्चिम से लेकर सिन्धुसागर तक के प्रदेश तथा सर्वप्रवर कच्छ देश को जीत लिया। सुषेण के विजयी होने पर अनेक जनपद और नगर आदि के स्वामी सेनापति की सेवा में अनेक आभरण, भूषण, रत्न, वस्त्र तथा अन्य बहुमूल्य भेट लेकर उपस्थित हुए (५२)। तत्पश्चात् सुषेण सेनापति ने तिमिसगुहा के दक्षिण द्धार के कपाटों का उद्घाटन किया (५३)।
इसके बाद भरत चक्रवर्ती अपने मणिरत्नको लेकर तिमिसगुहा के दक्षिण द्वार के पास गया और भित्ति के ऊपर काकणिरत्न' से उसने ४९ मण्डल बनाये (५४)।
__ उत्तरार्ध भरत में आपात नाम के किरात रहते थे। वे अनेक भवन, शयन, यान, वाहन, तथा दास, दासी, गो, महिष आदि से संपन्न थे। एक बार अपने देश में अकाल गर्जन, असमय में विद्युत् की चमक और वृक्षों का फलना-फूलना १. जैन परंपरा के अनुसार राजा कूणिक भी दिग्विजय के लिये तिमिसगुहा
में गया था, लेकिन कृतमाल देव से आहत होकर वह छठे नरक में गया ।
देखिए-आवश्यकचूर्णि, २, पृ० १७७. २. ४ मधुरतृणफल = श्वेतसर्षप १६ श्वेतसर्षप =१ धान्यमाषफल २ धान्यमाषफल = १ गुंजा
५ गुंजा =१ कर्ममाषक १६ कर्ममाषक =१ सुवर्ण ३८ सुवर्ण =१ काकणीरत्न-टीका.
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