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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ८४ नलिनांगशतसहस्र=१ नलिन ८४ नलिनशतसहस्र=१ अस्तिनीपूरांग ८४ अस्तिनीपूरांगशतसहस्र=१ अस्तिनीपूर ८४ अस्तिनीपूरशतसहस्र =१ अयुतांग ८४ अयुतांगशतसहस्त्र==१ अयुत ८४ अयुतशतसहस्त्र=१ नयुतांग ८४ नयुतांगशतसहस्र=१ नयुत ८४ नयुतशतसहस्र-१ प्रयुतांग ८४ प्रयुतांगशतसहस्र=१ प्रयुत ८४ प्रयुतशतसहस्त्र=१ चूलिकांग ८४ चूलिकांगशतसहस्र=१ चूलिका ८४ चूलिकाशतसहस्र=१ शीर्षप्रहेलिकांग ८४ शीर्षप्रहेलिकांग= १ शीर्षप्रहेलिका' (सूत्र १८)। इसके बाद सागरोपम और पल्योपम का वर्णन किया गया है और यह बताया गया है कि चार सागरोपम कोडाकोडि का सुषमा-सुषमा काल होता है। इस काल में भारतवर्ष में दस प्रकार के कल्पवृक्ष बताये गये हैं-मत्तांग, भृतांग, त्रुटितांग, दीपशिखा, ज्योतिषिक, चित्रांग, चित्ररस, मणिअंग, गेहागार और अणिगण । इन कल्पवृक्षों से इच्छित पदार्थों की प्राप्ति होती है (१९-२०)। आगे इस काल के पुरुष और स्त्रियों का वर्णन (२१), उनके आहार और निवासस्थान का वर्णन (२२-२४) एवं उनकी भवस्थिति का वर्णन है ( २५)। सुषमा नामक दूसरे काल का वर्णन (२६) करते हुए सुषमा-दुष्षमा नामक तीसरे काल का वर्णन किया गया है ( २७)। इस काल में सुमति, प्रतिश्रुति, सीमंकर, सीमंधर, क्षेमंकर, क्षेमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान् , यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, प्रसेनजित् , मरुदेव, नाभि और वृषभ नाम के पन्द्रह कुलकर हुए। इनमें से १ से ५ कुलकरों ने हक्कार ( हाकार) दंडनीति , ६ से १० १. यहाँ टीकाकार ने शीर्षप्रहेलिका की संख्या बताते हुए वाचनाभेद के कारण सूत्रपाठ में भेद बताया है। ज्योतिप्करण्ड में शीर्षप्रहेलिका का प्रमाण भिन्न है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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