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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
करते हैं । उन्नीसवें अध्याय में बारह महीनों के लौकिक और लोकोत्तर नाम गिनाये हैं । बीसवें अध्याय में नक्षत्रों के संवत्सरों का उल्लेख है । संवत्सर पाँच होते हैं-नक्षत्र संवत्सर, युग संवत्सर, प्रमाण संवत्सर, लक्षण संवत्सर और शनैश्चर संवत्सर । इक्कीसवें अध्याय में नक्षत्र के द्वारों का वर्णन है । बाइसवें अध्याय में नक्षत्रों की सीमा, विष्कंभ आदि का प्रतिपादन किया गया है ( ५२-७० ) । एकादशादि प्राभृत:
ग्यारहवें प्राभृत में संवत्सरों के आदि-अन्त का वर्णन है ( ७१ ) । बारहवें प्राभृत में नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित – इन पाँच संवत्सरों का वर्णन है (७२-७८ ) । तेरहवें प्राभृत में चन्द्रमा की वृद्धि-हानि का वर्णन है ( ७९-८१ ) । चौदहवें प्राभृत में ज्योत्स्ना का वर्णन है ( ८२ ) । पन्द्रहवें प्राभृत में चन्द्र-सूर्य आदि की गति के तारतम्य का उल्लेख है ( ८३-८६ ) | सोलहवें प्राभृत में ज्योत्स्ना का लक्षण प्रतिपादित किया गया है ( ८७ ) । सत्रहवें प्राभृत में चन्द्र आदि के वन और उपपात का वर्णन है ( ८८ ) । अठारहवें प्राभृत में चन्द्र-सूर्य आदि की ( भूमि से ) ऊँचाई का प्रतिपादन है ( ८९-९९ ) । उन्नीसवें प्राभृत में सर्वलोक में चन्द्र-सूर्य की संख्या का प्रतिपादन है ( १०० - १०३ ) । बीसवें प्राभृत में चन्द्र आदि के अनुभाव का वर्णन है । यहाँ ८८ महाग्रहों का उल्लेख है ( १०४-१०८ ) ।
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उपलब्ध चन्द्र प्रज्ञप्ति :
चन्द्रप्रति जैन आगमों का सातवाँ उपांग है । इसे उबासगदसाओ का उपांग माना गया है । मलयगिरि ने इस पर टीका लिखी है। श्री अमोलकऋषि ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है जो हैदराबाद से प्रकाशित हुआ है। नाम से मालूम होता है कि चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र के परिभ्रमण का वर्णन रहा होगा तथा सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के परिभ्रनग का । वर्तमान में उपलब्ध चंद्रप्रजति व सूर्यप्रज्ञप्ति का विषय बिल्कुल समान है अथवा मिला हुआ है। ठाणांग सूत्र ( ४.१ ) में चंदपन्नत्ति, सूरपन्नत्ति, जंबुद्दीवपन्नत्ति और दीवसागरपन्नत्ति को अङ्गबाह्य श्रुत में गिना गया है ।
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