________________
सूर्यप्रज्ञप्ति व चन्द्रप्रज्ञप्ति
१०७ द्वितीय प्राभृत: ___ दूसरे प्राभृत में तीन अध्याय हैं-१. सूर्य के उदय और अस्त का वर्णन' (२१)। २. सूर्य के एक मण्डल से दूसरे मण्डल में गमन करने का वर्णन (२२)। ३. सूर्य एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र में परिभ्रमण करता है, इसका वर्णन (२३)। इन अध्यायों में अन्य मतों का उल्लेख करते हुए स्वमत का प्रतिपादन किया गया है। तृतीयादि प्राभृत: ___ तीसरे प्राभृत में चन्द्र-सूर्य द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले द्वीप-समुद्रों का वर्णन है। इस संबंध में बारह मतान्तरों का उल्लेख किया गया है ( २४ ) । चौथे प्राभृत में चन्द्र-सूर्य के संस्थान-आकार का वर्णन है। इस संबंध में सोलह मतान्तरों का उल्लेख है (२५)। पाँचवें प्राभृत में सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है (२६)। छठे प्राभृत में सूर्य के ओज का वर्णन है, अर्थात् सूर्य सदा एक रूप में अवस्थित रहता है अथवा प्रतिक्षण बदलता रहता है-यह बताया गया है। जैन मान्यता के अनुसार जम्बूद्वीप में प्रतिवर्ष केवल ३० मुहूर्त तक सूर्य का प्रकाश अवस्थित रहता है, बाकी समय में अनवस्थित रहता है (२७)। सातवाँ प्राभूत वरण-प्राभृत हैसूर्य अपने प्रकाश द्वारा मेरु आदि पर्वतों को ही प्रकाशित करता है अथवा अन्य प्रदेशों को भी (२८)? आठवाँ प्राभूत उदय-संस्थिति प्राभूत है-जो
१. यहाँ ग्रंथकार ने तीर्थकों के अनेक मतों का उलेख किया है। कुछ लोगों
का मानना है कि सूर्य पूर्व दिशा में उदय होकर आकाश में चला जाता है। यह कोई विमान, रथ या देवता नहीं है बल्कि गोलाकार किरणों का समूह मात्र है जो संध्या समय नष्ट हो जाता है। कुछ लोग सूर्य को देवता स्वीकार करते हैं जो स्वभाव से आकाश में उत्पन्न होता है और संध्या के समय आकाश में अदृश्य हो जाता है। दूसरे लोग सूर्य को सदा स्थित रहने वाला देवता स्वीकार करते हैं जो प्रातःकाल पूर्व में उदित होकर संध्या समय पश्चिम में पहुंच जाता है, और फिर वहाँ से अधोलोक को प्रकाशित करता हुआ नीचे की : ओर लौट आता है। टीकाकार के अनुसार, पृथ्वी को गोल स्वीकार करनेवालों को ही यह मत मान्य हो सकता है, जैनों को नहीं, क्योंकि वे पृथ्वी को गोलाकार न मानकर असंख्यात द्वीप-समुद्रों से घिरी स्वीकार करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org