________________
चतुर्थ प्रकरण
प्रज्ञापना
पन्नवणा अथवा प्रज्ञापना' जैन आगमों का चौथा उपांग है। इसमें ३४९ सूत्रों में निम्नलिखित ३६ पदों का प्रतिपादन है:-प्रज्ञापना, स्थान, बहुवक्तव्य, स्थिति, विशेष, व्युत्क्रान्ति, उच्छ्वास, संज्ञा, योनि, चरम, भाषा, शरीर, परिणाम, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, कायस्थिति, सम्यक्त्व, अन्तक्रिया, अवगाहनासंस्थान, क्रिया, कर्म, कर्मबन्धक, कर्मवेदक, वेदबन्धक, वेदवेदक, आहार, उपयोग, पश्यत्ता-दर्शनता, संज्ञा, संयम, अवधि, प्रविचारणा, वेदना और समुद्धात । इन पदों का विस्तृत वर्णन गौतम इन्द्रभूति और महावीर के प्रश्नोत्तररूप में किया गया है। जैसे अंगों में भगवती सूत्र वैसे ही उपांगों में प्रज्ञापना सबसे बड़ा है। इस उपांग के कर्ता वाचकवंशीय पूर्वधारी आर्य श्यामाचार्य हैं जो सुधर्मा स्वामी की तेईसी पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे और महावीरनिर्वाण के ३७६ वर्ष बाद मौजूद थे। इसके टीकाकार मलयगिरि हैं जिन्होंने हरिभद्रसूरिकृत विषम पदों के विवरणरूप लघु टीका के आधार से टीका लिखी है। यह आगम समवायांग सूत्र का उपांग माना गया है, यद्यपि दोनों की विषयवस्तु में कोई १. (अ) मलयगिरिविहित विवरण, रामचन्द्रकृत संस्कृत छाया व परमानन्द
र्षिकृत स्तबक के साथ-धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८४. (आ) मलयगिरिकृत टीका के साथ-आगमोदय समिति, बम्बई, सन्
१९१८-१९१९. (इ) हिन्दी अनुवादसहित-अमोलकऋषि, हैदराबाद, वी० सं० २४४५. (ई) मलयगिरिविरचित टीका के गुजराती अनुवाद के साथ-भगवानदास
..हर्षचंद्र, जैन सोसायटी, अहमदाबाद, वि० सं० १९९१. (उ) हरिभद्र विहित प्रदेशव्याख्यासहित-ऋषभदेवजी केशरीमलजी
श्वेताम्बर संस्था तथा जैन पुस्तक प्रचारक संस्था, सन् १९४७
१९४९. २. जयति हरिभद्रसूरिष्टीकाकृद्विवृतविषमभावार्थः । यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन विवृतिकरः ॥
--प्रज्ञापनाटीका, पृ० ३४९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org