SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दृष्टि में रखते हुए समस्त प्रकार के प्रयत्न करने की बार-बार प्रेरणा दी गई हो वहाँ केवल तमार्गोपयोगी अक्षरश्रुत एवं अनक्षरश्रुत ही श्रुतज्ञान को कोटि में समाविष्ट हो सकता है। इस प्रकार के मार्ग के लिए तो जिस वक्ता अथवा श्रोता की दृष्टि शमसम्पन्न हो, संवेगसम्पन्न हो, निर्वेदयुक्त हो, अनुकम्पा अर्थात् करुणावृत्ति से परिपूर्ण हो एवं देहभिन्न आत्मा में श्रद्धाशील हो उसी का ज्ञान उपयोगी सिद्ध होता है । इस तथ्य को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए नन्दिसूत्रकार ने बतलाया है कि शमादियुक्त वक्ता अथवा श्रोता का अक्षर-अनक्षररूपश्रुत ही सम्यक्श्रुत होता है । शमादिरहित वक्ता अथवा श्रोता का वही श्रुत मिथ्याश्रुत कहलाता है। इस प्रकार उक्त श्रुत के पुनः दो विभाग किये गये हैं। प्रस्तुत श्रुत-विचारणा में आत्मविकासोपयोगी श्रुत को ही सम्यक्श्रुत कहा गया है। यह विचारणा सम्प्रदायनिरपेक्ष है । इसी का परिणाम है कि तथाकथित जैन सम्प्रदाय के न होते हए भी अनेक व्यक्तियों के विषय में अर्हत्व अथवा सिद्धत्व का निर्देश जैन आगमों में मिलता है। जैन शास्त्रों के द्वितीय अंग सूयगड-सूत्रकृतांग के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक की प्रथम चार गाथाओं में वैदिक परम्परा के कुछ प्रसिद्ध पुरुषों के नाम दिये गये हैं एवं उन्हें महापुरुष कहा गया है । इतना ही नहीं, उन्होंने सिद्धि प्राप्त की, यह भी बताया गया है । इन गाथाओं में यह भी बताया गया है कि वे शीत जल का उपयोग करते अर्थात् ठण्डा पानी पीते, स्नान करते, ठंडे पानी में खड़े रह कर साधना भी करते तथा भोजन में बीज एवं हरित अर्थात् हरी-कच्ची वनस्पति भी लेते थे । इन महापुरुषों के विषय में मूल गाथा में आने वाले 'तप्त. तपोधन' शब्द की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि वे तपोधन थे अर्थात् पंचाग्नि तप तपते थे तथा कंद, मल, फल, बीज एवं हरित अर्थात् हरी-कच्ची वनस्पति का भोजनादि में उपयोग करते थे। इस वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मूल गाथाओं में निर्दिष्ट उपर्युक्त महापुरुष जैन सम्प्रदाय के क्रियाकाण्ड के अनुसार जीवन व्यतीत नहीं करते थे। फिर भी वे सिद्धि को प्राप्त हुए थे। यह बात आहेत प्रवचन में स्वीकार की गई है । यह तथ्य जैन प्रवचन की विशालता एवं सम्यकश्रत की उदारतापूर्ण व्याख्या को स्वीकार करने के लिए पर्याप्त है। जिनकी दृष्टि सम्यक् है अर्थात् शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य से परिप्लावित है उनका श्रु त भी सम्यक्च त है अर्थात् उनका सम्यग्ज्ञानी होना स्वाभाविक है । ऐसी अवस्था में वे सिद्धि प्राप्त करें, इसमें आश्चर्य क्या है ? जैन प्रवचन में जिन्हें अन्यलिंगसिद्ध कहा गया है वे इस प्रकार के महापुरुष हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy