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जैन श्रुत
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के सर्वसम्मत सार्वत्रिक साहचर्य को ध्यान में रखते हुए यह कहना उपयुक्त प्रतीत होता है कि सांकेतिक भाषा के अतिरिक्त सांकेतिक चेष्टाएँ भी श्रुतज्ञान में समाविष्ट हैं । ऐसा होते हुए भी इस विषय में भाष्यकार जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकवृत्ति में तथा आचार्य मलयगिरि ने नन्दिवृत्ति में जो मत व्यक्त किया है उसका यहाँ निर्देश करना आवश्यक है ।
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उक्त तीनों आचार्य लिखते हैं कि अश्रूयमाण शारीरिक चेष्टाओं को अनक्षरश्रुत में समाविष्ट न करने की रूढ़ परम्परा है । तदनुसार जो सुनने योग्य है वही श्रुत है, अन्य नहीं । जो चेष्टाएँ सुनाई न देती हों उन्हें श्रुतरूप नहीं समझना चाहिए ।" यहाँ 'श्रुत' शब्द को रूढ़ न मानते हुए यौगिक माना गया है ।
अचेलक परम्परा के तत्त्वार्थ राजवार्तिक नामक ग्रन्थ में बताया गया है कि 'श्रुतशब्दोऽयं रूढिशब्दः इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतत्व सिद्धिर्भवति' अर्थात् 'श्रुत' शब्द रूढ़ है | श्रुतज्ञान में किसी भी प्रकार का मविज्ञान कारण हो सकता है । इस व्याख्या के अनुसार श्रूयमाण एवं दृश्यमान दोनों प्रकार के संकेतों द्वारा होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान की कोटि में आता है । मेरी दृष्टि से श्रुत' शब्द का - दृश्यमान दोनों प्रकार के संकेतों व कोई आपत्ति नही होनी चाहिए ।
व्यापक अर्थ में प्रयोग करते हुए श्रूयमाण व चेष्टाओं को श्रुतज्ञान में समाविष्ट करने में
इस प्रकार अक्षरश्रुत व अनक्षरश्रुत इन दो अवान्तर भेदों के साथ श्रुतज्ञान का व्यापक विचार जैन परम्परा में अति प्राचीन समय से होता आया है । • इसका उल्लेख ज्ञान के स्वरूप का विचार करने वाले समस्त जैन ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध है ।
- सम्यक् श्रुत व मिथ्याश्रुत :
ऊपर बताया गया है कि भाषासापेक्ष, अव्यक्तध्वनिसापेक्ष तथा संकेतसापेक्ष - समस्तज्ञान श्रुत की कोटि में आता है । इसमें झूठा ज्ञान, चौर्य को सिखाने वाला ज्ञान, अनाचार का पोषक ज्ञान इत्यादि मुक्तिविरोधी एवं आत्मविकासबाधक ज्ञान भी समाविष्ट हैं । सांसारिक व्यवहार की अपेक्षा से भले ही ये समस्त ज्ञान 'श्रुत' कहे जाएँ किन्तु जहाँ आध्यात्मिक दृष्टि की मुख्यता हो एवं इसी एक लक्ष्य को
१. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ५०३, पृ. २७५; हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति, पृ. २५, गां. २०; मलयगिरि नन्दिवृत्ति, पृ. १८९, सू. ३९.
२. अ. १, सू.२०, पृ. १.
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