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________________ लिखा है कि सुधर्मा ने केवल एक जम्बू को ही नहीं किन्तु अपने अनेक शिष्यों को अंगों की वाचना दी थी-"तदिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खयेण केवली जादो ।" -जयधवला पृ० ८४ । यहाँ स्पष्ट रूप से जम्बू ने अपने शिष्य ऐसे एक नहीं किन्तु अनेक आचार्यों को द्वादशांग पढ़ाया है-ऐसा उल्लेख है। इस पर से क्या हम क्ल्पना नहीं कर सकते कि संघ में श्रुतधरों की संख्या बहुत बड़ी होती थी ? ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर-दिगम्बरों में जिस विषय में कभी भेद रहा नहीं उस विषय में भेद की कल्पना करना उचित नहीं है। प्राचीन परम्परा के अनुसार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में यही मान्यता फलित होती है कि सभी गणधर सूत्ररचना करते थे और अपने अनेक शिष्यों को उसकी वाचना देते थे। एक बात और यह भी है कि अंगज्ञान सार्वजनिक हो गया श्वेताम्बरों में और दिगम्बरों में नहीं हुआइससे पंडितजी का विशेष तात्पर्य क्या यह है कि केवल दिगम्बर परम्परा में ही गुरु-शिष्य परम्परा से ही अंगज्ञान प्रवाहित हुआ और श्वेताम्बरों में नहीं ? यदि ऐसा ही उनका मन्तव्य है जैसा कि उनके आगे उद्धृत अवतरण से स्पष्ट है तो यह भी उनका कहना उचित नहीं जंचता। हमने आचार्य जिनभद्र के अवतरणों से यह स्पष्ट किया ही है कि उनके समय तक यही परम्परा थी कि शिष्य को गुरुमुख से ही और वह भी उनकी अनुमति से ही, चोरी से नहीं, श्रुत का पाठ लेना जरूरी था और यही परम्परा विशेषावश्यक के टीकाकार हेमचन्द्र ने भी मानी है। इतना ही नहीं आज भी यह परम्परा श्वेताम्बरों में प्रचलित है कि योगपूर्वक, तपस्यापूर्वक गुरुमुख से ही श्रुतपाठ शिष्य को लेना चाहिए । ऐसा होने पर ही वह उसका पाठी कहा जायगा। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर-परम्परा में वह सार्वजनिक हो गया और दिगम्बर-परम्परा में गुरुशिष्य परम्परा तक सीमित रहापंडितजी का यह कहना कहाँ तक संगत है ? सार्वजनिक से तात्पर्य यह हो कि कई साधुओं ने मिल कर अंग की वाचना निश्चित की अतएव श्वेताम्बरों में वह व्यक्तिगत न रहा और सार्वजनिक हो गया। इस प्रकार सार्वजनिक हो जाने से ही दिगम्बरों ने अंगशास्त्र को मान्यता न दी हो यह बात हमारी समझ से तो परे है । कोई एक व्यक्ति कहे वही सत्य और अनेक मिलकर उनकी सचाई की मोहर दें तो वह सत्य नहीं-ऐसा मानने वाला उस काल का दिगम्बर सम्प्रदाय होगा-ऐसा मानने को हमारा मन तो तैयार नहीं। इसके समर्थन में कोई उल्लेख भी नहीं है। आज दिगम्बर समाज जिस किसी कारण से श्वेताम्बर सम्मत आगमों को न मानता हो उसकी खोज करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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