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कर रहे हैं । और यह मन्तव्य धवला से उन्हें मिला है जहां यह कहा है गया कि गौतम ने अंगज्ञान सुधर्मा को दिया । अतएव यह फलित किया गया कि सुधर्मा ने अंगग्रथन नहीं किया था, केवल गौतम ने किया था।
हमने ऊपर जो पूज्यपाद आदि धवला से प्राचीन आचार्यों के अवतरण दिये हैं उससे तो यही फलित होता है कि धवलाकार ने अपना यह नया मन्तव्य प्रचलित किया है यदि जैसा पण्डित कैलाशचन्द्र ने माना है-यही सच हो। अतएव धवलाकार के वाक्य की संगति बैठाना हो तो इस विषय में दूसरा ही मार्ग लेना होगा या यह मानना होगा कि धवलाकार प्राचीन आचार्यों से पृथक् मतान्तर को उपस्थित कर रहे हैं, जिसका कोई प्राचीन आधार नहीं है। यह केवल उन्हीं का चलाया हुआ मत है । हमारा मत तो यही है कि धवलाकार के वाक्य की संगति बैठाने का दूसरा हो मार्ग लेना चाहिए, न कि पूर्वाचार्यों के मत के साथ उनकी विसंगति का ।
अब यह देखा जाय कि क्या श्वेताम्बरों ने किसी गणधर व्यक्ति का नाम सूत्र के रचयिता के रूप में दिया है कि नहीं जिसकी खोज तो पं० कैलाशचन्द ने की किन्तु वे विफल रहे। आवश्यकनियुक्ति की गाथा है
"एक्कारस वि गणधरे पवायए पवयणस्स वदामि । सव्वं गणधरवंसं वायगवंसं पवयणं च ॥ ८० ॥
-विशेषा० १०६२ इसकी टीका में आचार्य मलधारी ने स्पष्ट रूप से लिखा है
"गौतमादीन् वन्दे । कथं भूतान् प्रकर्षेण प्रधानाः आदौ वा वाचकाः प्रवाचकाः प्रवचनस्य आगमस्य ।" पृ० ४९० ।' ____ इसी नियुक्ति गाथा को भाष्यगाथाओं की स्वोपज्ञ टीका में जिनभद्र ने भी लिखा है
"यथा अर्हन्नर्थस्य वक्तेति पूज्यस्तथा गणधराः गौतमादयः सूत्रस्य वक्तार इति पूज्यन्ते मङ्गलत्वाच्च ।"
प्रस्तुत में गौतमादि का स्पष्ट उल्लेख होने से 'श्वेताम्बरों में साधारण रूप से गणधरों का उल्लेख है किन्तु खास नाम नहीं मिलता'-यह पण्डितजी का कथन निर्मूल सिद्ध होता है ।
१. यह पुस्तक पण्डितजी ने देखी है अतएव इसका अवतरण यहाँ दिया है।
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