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________________ ( २८ ) 'पइण्णगविही' की समाप्ति की है । इससे सूचित होता है कि इनके मत में १८ प्रकीर्णक थे । अन्त में महानिसीह का उल्लेख होने से कुल ५१ ग्रन्थों का जिनप्रभ ने उल्लेख किया है। जिनप्रभ ने संग्रहरूप जोगविहाण नामक गाथाबद्ध प्रकरण का भी उद्धरण अपने ग्रन्थ में दिया है-पृ० ६० । इस प्रकरण में भी संख्यांक देकर अंगों के नाम दिये गये हैं। योगविधिक्रम में आवस्सय और दसवेयालिय का सर्वप्रथम उल्लेख किया है और ओघ और पिण्डनियुक्ति का समावेश इन्हीं में होता हैऐसी सूचना भी दी है ( गाथा ७, पृ० ५८)। तदनन्तर नन्दी और अनुयोग का उल्लेख करके उत्तराध्ययन का निर्देश किया है। इसमें भी समवायांग के बाद दसा-कप्प-ववहार-निसीह का उल्लेख करके इन्हीं की 'छेदसूत्र' ऐसी संज्ञा भी दी है-गाथा-२२, पृ० ५९। तदनन्तर जीयकप्प और पंचकप्प (पणकप्प) का उल्लेख होने से प्रकरणकार के समय तक सम्भव है ये छेदसूत्र के वर्ग में सम्मिलित न किये गए हों। पञ्चकल्प के बाद ओवाइय आदि चार उपांगों की बात कह कर विवाहपण्णत्ति से लेकर विवाग अंगों का उल्लेख है । तदनन्तर चार प्रज्ञप्ति--सूर्यप्रज्ञप्ति आदि निर्दिष्ट हैं। तदनन्तर निरयावलिया का उल्लेख करके उपांगदर्शक पूर्वोक्त गाथा (२०६०) निर्दिष्ट है । तदनन्तर देविदत्यय आदि प्रकीर्णक की तपस्या का निर्देश कर के इसिभासिय का उल्लेख है। यह भी मत उल्लिखित है जिसके अनुसार इसिभासिय का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है (गाथा ६२, पृ० ६२) । अन्त में सामाचारीविषयक परम्परा भेद को देखकर शंका नहीं करनी चाहिए यह भी उपदेश है (गाथा ६६) । जिनप्रभ के समय तक साम्प्रतकाल में प्रसिद्ध वर्गीकरण स्थिर हो गया था इसका पता 'वायणाविहीं' के उत्थान में उन्होंने जो वाक्य दिया उससे लगता है-"एवं कप्पतिच्पाइविहिपुरस्सरं साह समाणियसयलजोगविही मुलग्गन्थ-नन्दिअणुओगदार-उत्तरज्झयण - इसिभासिय-अंग-उवंग-पइन्नय - छेयग्गन्थआगमे वाइज्जा"-१० ६४। इससे यह भी पता लगता है कि 'मूल' में आवश्यक और दशवकालिक ये दो ही शामिल थे। इस सूची में 'मूलग्रन्थ' ऐसा उल्लेख है किन्तु पृथक् रूप से आवश्यक और दशवकालिक का उल्लेख नहीं है-इसी से इसकी सूचना मिलती है। __ जिनप्रभ ने अपने सिद्धान्तागमस्तव में वर्गों के नाम की सूचना नहीं दी किन्तु विधिमार्गप्रपा में दी है-इसका कारण यह भी हो सकता है कि उनकी १. गच्छायार के बाद-'इच्चाइ पइण्णगाणि' ऐसा उल्लेख होने से कुछ अन्य भी प्रकीर्णक होंगे जिनका उल्लेख नामपूर्वक नहीं किया गया-पृ० ५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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