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( २७ ) इसके बाद "इयाणि उवंगा" ऐसा लिखकर जिस अंग का जो उपांग है उसका निर्देश इस प्रकार किया हैअंग
उपांग १ आचार
२१ ओवाइय २ सूयगड
२२ रायपसेणइय ३ ठाण
२३ जीवाभिगम ४ समवाय
२४ पण्णवणा ५ भगवई
२५ सूरपण्णत्ति ६ नाया(धम्म)
२६ जंबुद्दीवपण्णत्ति ७ उवासगदसा
२७ चंदपण्णत्ति ८-१२ अंतगडदसादि
२८-३२ निरयावलिया
सुयक्खंध
(२८ 'कप्पिया" २९ कप्पडिसिया, ३० पुफिया, ३१ पुप्फचूलिया,
३२ वण्हिदसा) आचार्य जिनप्रभ ने मतान्तर का भी उल्लेख किया है कि "अण्णे पुण चंदपण्णत्ति. सूरपण्णत्ति च भगवईउवंगे भणंति । तेसिं मएण उवासगदसाईण पंचण्हमंगाणं उवगं निरयावलियासुयक्खंधो"-पृ० ५७.
इस मत का उत्थान इस कारण से हुआ होगा कि जब ११ अंग उपलब्ध हैं और बारहवाँ अंग उपलब्ध ही नहीं तो उसके उपांग की आवश्यकता नहीं है । अतएव भगवती के दो उपांग मान कर ग्यारह अंग और बारह उपांग की संगति बैठाने का यह प्रयत्न है । अन्त में श्रीचन्द्र की सुखबोधा सामाचारी में प्राप्त गाथा उद्धृत करके 'उगविही' की समाप्ति की है।
तदनन्तर 'संपयं पइण्णगा'- इस उल्लेख के साथ ३३ नंदी, ३४ अनुयोगदाराइं, ३५ देविदत्थय, ३६ तंदुलवैयालिय, ३७ मरणसमाहि, ३८ महापच्चक्खाण, ३९ आउरपच्चक्खाण, ४० संथारय, ४१ चन्दाविज्झय, ४२ भत्तपरिणा, ४३ चउसरण, ४४ वीरत्थय, ४५ गणिविज्जा, ४६ दीवसागरपण्णत्ति, ४७ संगहणी, ४८ गच्छायार, ४९ दीवसागरपण्णत्ति, ५० इसिभासियाई-इनका उल्लेख करके
१. श्रीचन्द्र की सुखबोधा सामाचारी में इसके स्थान में निरयावलिया का निर्देश है।
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