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जाता है । छेद में भी नामभेद है । कभी-कभी पञ्चकल्प को इस वर्ग में शामिल किया जाता है । "
प्राचीन उपलब्ध आगमों में आगमों का जो परिचय दिया गया है उसमें यह पाठ है - "इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं.. इमे दुवासंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तं जहा - आयारे सूयगडे ठाणे समवाए वियाहपन्नत्ति नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणं विवागसुए दिट्टिवाए । तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवात्ति आहिए तस्स णं अयमट्ठे पण्णत्ते" (समवाय अंग का प्रारम्भ ) ।
समवायांग मूल में जहाँ १२ संख्या का प्रकरण चला है वहाँ द्वादशांग का परिचय न देकर एक कोटि समवाय के बाद वह दिया है । वहाँ का पाठ इस प्रकार प्रारम्भ होता है - दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तं जहा आया रे..... दिट्टिवाए । से कं तं आयारे ? आयारे णं समणाणं......... " इत्यादि क्रम से एक- एक का परिचय दिया है । परिचय में " अंगट्टयाए पढमें........अंगठ्ठयाए दोच्चे.. ." इत्यादि देकर द्वादश अंगों के क्रम को भी निश्चित कर दिया है । परिणाम यह हुआ कि जहाँ कहीं अंगों की गिनती की गई, पूर्वोक्त क्रम का पालन किया गया । अन्य वर्गों में जैसा व्युत्क्रम दीखता है वैसा द्वादशांगों के क्रम में नहीं देखा जाता ।
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'अट्ट' - 'अर्थ' शब्द का तीर्थंकर भगवान् महावीर
दूसरी बात ध्यान देने की है कि " तस्स णं अयमट्ठे पण्णत्ते' ( समवाय का प्रारम्भ) और “अंगट्टयाए पढमे " - इत्यादि में 'अट्ठ' (अर्थ) शब्द का प्रयोग किया है वह विशेष प्रयोजन से हैं । जो यह परम्परा स्थिर हुई है कि 'अत्थं भासइ अरहा ( आवनि० १९२ ) - उसी के कारण प्रस्तुत में प्रयोग है । तात्पर्य यह है कि ग्रन्थरचना - शब्द रचना की नहीं है किन्तु उपलब्ध आगम में जो ग्रन्थ-रचना है, जिन शब्दों में यह आगम उपलब्ध है उससे फलित होनेवाला अर्थ या तात्पर्य भगवान् द्वारा प्रणीत है । ये भी शब्द भगवान् के नहीं हैं किन्तु इन शब्दों का तात्पर्य जो स्वयं भगवान् ने बताया था उससे भिन्न नहीं है । उन्हीं के उपदेश के आधार पर " सुत्तं गन्थन्ति गहरा निउणं" (आवनि० १९२ ) - गणधर सूत्रों की रचना करते हैं । सारांश यह है कि उपलब्ध अंग आगम की रचना गणधरों ने की है—- ऐसी परम्परा है ।
१. देखिए - Prof. Kapadia A History of the Canonical Literature of the Jainas, Chap. II.
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