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बौद्ध अंगुत्तरनिकाय में पूर्वकाल में होनेवाले सात शास्ता वीतराग तीर्थंकरों की बात भगवान् बुद्ध ने कही है-“भूतपुप्वं भिक्खवे सुनेत्तो नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामसू वीतरागो मुगपक्ख""अरनेमि"कुद्दालक" हत्थिपाल'"जोतिपाल अरको नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो । अरकस्स खो पन, भिक्खवे, सत्थुनो अनेकानि सावकसतानि अहेसु" (भाग ३. पृ० २५६-२५७) । ___इसी प्रसंग में अरकसुत्त में अरक का उपदेश कैसा था, यह भी भगवान् बुद्ध ने वर्णित किया है । उनका उपदेश था कि "अप्पकं । जीवितं मनुस्सानं परित्तं, लहुकं बहुदुक्खं बहुपायासं मन्तयं बोद्धव्वं कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्यि जातस्स अमरणं' (पृ० २५७) । और मनुष्यजीवन की इस नश्वरता के लिए उपमा दी है कि सूर्य के निकलने पर जैसे तृणाग्र में स्थित (घास आदि पर पड़ा) ओसबिन्दु तत्काल विनष्ट हो जाता है वैसे ही मनुष्य का यह जीवन भी शीघ्र मरणाधीन होता है । इस प्रकार इस ओसबिन्दु की उपमा के अलावा पानी के बुबुद और पानी में दण्डराजि आदि का भी उदाहरण देकर जीवन की क्षणिकता बताई गई है (पृ० २५८) ।
अरक के इस उपदेश के साथ उत्तराध्ययनगत 'समयं गोयम मा पमायए' उपदेश तुलनीय है (उत्तरा. अ. १०)। उसमें भी जीवन की क्षणिकता के ऊपर भार दिया गया है और अप्रमादी बनने को कहा गया है । उसमें भी कहा है
कुसग्गे जह ओसबिन्दुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए ।
एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए । ___ अरक के समय के विषय में भगवान् बुद्ध ने कहा है कि अरक तीर्थकर के समय में मनुष्यों की आयु ६० हजार वर्ष की होती थी, ५०० वर्ष की कुमारिका पति के योग्य मानी जाती थी। उस समय के मनुष्यों को केवल छः प्रकार की पीड़ा होती थी-शीत, उष्ण, भूख, तृषा, पेशाब करना और मलोत्सर्ग करना । इनके अलावा कोई रोगादि की पीड़ा न होती थी। इतनी बड़ी आयु और इतनी कम पीड़ा फिर भी अरक का उपदेश जीवन की नश्वरता का और जीवन में बहुदुःख का था।
भगवान् बुद्ध द्वारा वर्णित इस अरक तीर्थंकर की बात का अठारहवें जैन तीर्थंकर अर के साथ कुछ मेल बैठ सकता है या नहीं, यह विचारणीय है । जैनशास्त्रों के आधार से अर की आयु ८४००० वर्ष मानी गई है और उनके बाद होनेवाले मल्ली तीर्थंकर की आयु ५५००० वर्ष है। अतएव पौराणिक
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