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________________ यहाँ हमें ऋग्वेद के यम-यमी संवाद की याद आती है। उसमें यमी जो यम की बहन है वह यम के साथ सम्भोग की इच्छा करती है किन्तु यम ने नहीं माना, और दूसरे पुरुष की तलाश करने को कहा । उससे यह झलक मिलती है कि भाईबहन का पति-पत्नी होकर रहना किसी समय समाज में जायज था किन्तु उस प्रथा के प्रति ऋग्वेद के समय में अरुचि स्पष्ट है । ऋग्वेद का समाज ऋषभदेवकालीन समाज से आगे बढ़ा हुआ है-इसमें सन्देह नहीं है । कृषि आदि का उस समाज में प्रचलन स्पष्ट है । इस दृष्टि से देखा जाय तो ऋषभदेव के समाज का काल ऋग्वेद से भी प्राचीन हो जाता है । कितना प्राचीन, यह कहना सम्भव नहीं नहीं अतएव उसकी चर्चा करना निरर्थक है । जिस प्रकार जैन शास्त्रों में राजपरम्परा की स्थापना की चर्चा है और उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की व्यवस्था है वैसे ही काल की दृष्टि से उन्नति और ह्रास का चित्र तथा राजपरम्परा को स्थापना का चित्र बौद्धपरम्परा में भी मिलता है। इसके लिए दीघनिकाय के चक्कवत्तिसुत्त (भाग ३, पृ० ४६) तथा अग्गञ्जसुत्त (भाग ३, पृ० ६३) देखना चाहिए । जैनपरम्परा के कुलकरों की परम्परा में नाभि और उनके पुत्र ऋषभ का जो स्थान है करीब वैसा ही स्थान बौद्धपरम्परा में महासम्मत का है (अगञ्जसुत्त-दीघ० का) और सामयिक परिस्थिति भी दोनों में करीब-करीब समानरूप से चित्रित है । संस्कृति के विकास का उसे प्रारम्भ काल कहा जा सकता है । ये सब वर्णन पौराणिक हैं, यही उसकी प्राचीनता में प्रबल प्रमाण माना जा सकता है । हिन्दू पुराणों में ऋषभचरित ने स्थान पाया है और उनके माता-पिता मरुदेवी और नाभि के नाम भी वही है जैसा जैनपरम्परा मानती है और उनके त्याग और तपस्या का भी वही रूप है जैसा जैनपरम्परा में वर्णित है । आश्चर्य तो यह है कि उनको वेदविरोधी मान कर भी विष्णु के अवताररूप से बुद्ध की तरह माना गया है।' यह इस बात का प्रमाण है कि ऋषभ का व्यक्तित्व प्रभावक था और जनता में प्रतिष्ठित भी। ऐसा न होता तो वैदिक परम्परा में तथा पुराणों में उनको विष्णु के अवतार का स्थान न मिलता। जैनपरम्परा में तो उनका स्थान प्रथम तीर्थंकर के रूप में निश्चित किया गया है। उनकी साधना का क्रम यज्ञ न होकर तपस्या है-यह इस बात का प्रमाण है कि वे श्रमण-परम्परा से मुख्यरूप से सम्बद्ध थे । श्रमणपरम्परा में यज्ञ द्वारा देव में नहीं किन्तु अपने कर्म द्वारा अपने में विश्वास मुख्य है। 9. History of Dharmasastra, Vol. V, part II. p. 995; जै० सा० इ० पू०, पृ० १२०. Jain Éducation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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